Thursday 26 May 2016

भारत-ईरान संबंधों की नई उड़ान (प्रमोद भार्गव)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ईरान यात्र द्विपक्षीय संबंधों के लिहाज से बेहद अहम् है। कोई दो राय नहीं कि भारत और ईरान के बीच जो 12 समझौते हुए हैं, वे हमारी कूटनीतिक में सफलता का नया अध्याय जोड़ने वाले साबित होंगे। यह यात्र इसलिए भी ऐतिहासिक है, क्योंकि अमेरिका की टेढ़ी नजर को दरकिनार करते हुए मोदी ने तेहरान की यात्र की है। यह इस बात का संकेत है कि भाजपा धीरे-धीरे स्वतंत्र और देश हितैशी सोच पर अधारित संतुलित कूटनीति को आगे बढ़ा रही है। साफ है, हमारी कूटनीति पर जो अमेरिकी छाया दिख रही थी, भारत ने उससे मुक्ति की ओर कदम बढ़ाया है। 12 समझौतों में बंदरगाह और गैस से जुड़े समझौते तो अहम् हैं ही, आतंकवाद से मिलकर मुकाबला करने की जो प्रतिबद्धता ईरान ने जताई है, वह भारत के लिए बेहद हितकारी है। इससे जहां पाकिस्तान को गहरा झटका लगा है, वहीं चीन भी चाबहार बंदरगाह का भारत द्वारा विकास किए जाने की संधि को लेकर सकते में है।
ईरान से भारत के संबंध अनूमन ठीक-ठाक रहे हैं। ईरान-ईराक युद्ध और फिर गोपनीय परमाणु कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के ऐबज में ईरान दुनिया से अलग-थलग पड़ने लग गया। अहमदी नेजाद के राष्ट्रपति रहते हुए, ईरान के अमेरिका से कटुता के संबंध बन गए थे, इस कारण संयुक्त राष्ट्र ने ईरान पर कई तरह के आर्थिक प्रतिबंध लगाने के साथ 100 अरब डॉलर की संपत्ति भी जब्त कर ली थी। तेल और गैस बेचने पर भी रोक लगा दी थी। गोया, ईरान के राष्ट्रपति जब हसन रूहानी बने तो हालात बदलना शुरू हुए। दूसरी तरफ पश्चिमी एशिया की बदल रही राजनीति ने भी ईरान और अमेरिका को निकट लाने का काम किया। नतीजतन अमेरिका समेत पश्चिमी देशों से ईरान के संबंध सुधरने लगे। रूहानी ने विवादित परमाणु कार्यक्रम को बंद करने का भरोसा देकर माहौल अनुकूल बना लिया।
अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे, तब 2003 में ईरान के तात्कालीन राष्ट्रपति मोहम्मद खातमी दिल्ली आए थे। तभी भारत और ईरान के बीच चाबहार बंदरगाह को विकसित करने व रेल लाइन बिछाने और कुछ सड़कें डालने के समझौते हो गए थे, लेकिन विवादित परमाणु कार्यक्रम और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां अनुकूल नहीं होने के कारण भारत इन कार्यक्रमों में रूचि होने के बावजूद कुछ नहीं कर पाया था। इस समय भारत को परमाणु शक्ति के रूप में उभरने व स्थापित होने के लिए अमेरिकी सहयोग व समर्थन की जरूरत थी। भारत राजस्थान के रेगिस्तान में परमाणु परीक्षण के लिए तैयार था। परमाणु परीक्षण अप्रत्यक्ष तौर से परमाणु बम बना लेने की पुष्टि होती है। इसके तत्काल बाद पाकिस्तान और उत्तर कोरिया ने भी परमाणु बम बना लेने की तस्दीक कर दी थी। इसी समय भारत परमाणु नि:शस्त्रीकरण की कोशिश में लगा था। इस नाते भारत यह कतई नहीं चाहता था कि ईरान परमाणु शक्ति संपन्न देश बन जाए। गोया, भारत को परमाणु अप्रसार संधि के मुद्दे पर अमेरिकी दबाव में ईरान के खिलाफ दो मर्तबा वोट देने पड़े थे। इन मतदानों के समय केंद्र में मनमोहन सिंह प्रधनमंत्री थे। हालांकि 2012 में तेरहान में आयोजित गुट निरपेक्ष देशों के सम्मेलन में मनमोहन सिंह ईरान गए थे। उन्होंने सम्मेलन के अजेंडे से इतर ईरानी नेताओं से बातवीत भी की थी, लेकिन संवाद की करिश्माई शैली नहीं होने के कारण जड़ता टूट नहीं पाई थी। किंतु अब भारत अमेरिकी दबाव से मुक्त हो रहा है। सौ अरब डॉलर की जब्त की गई संपत्ति पर अधिकार मिलने के बाद ईरान की कोशिश है कि उसकी ठहरी अर्थव्यस्था में गति आए, देश में पूंजी निवेश हो और पुराने मित्रों से नए संबंध बनें। इस नजरिए से चाबहार और ऊर्जा क्षेत्र के समझौते अहम हैं। ईरान के दक्षिणी-पूर्वी तट पर बनने वाले चाबहार बंदरगाह के पहले चरण के विकास में भारत 20 करोड़ डॉलर खर्च करेगा। हालांकि इस परियोजना में कुल निवेश 50 करोड़ डॉलर का होना है। ईरान में भारत के सहयोग से चाबहार से लेकर जाहेदान तक 500 किमी लंबी रेल लाइन भी बिछाई जाएगी। इस संधि का कूटनीति फायदा यह है कि इसके जरिए हमने ग्वादर बंदरगाह के सिलसिले में पाक और चीन को कूटनीतिक जवाब देने का रास्ता तलाश लिया है। दरअसल चीन अपनी पूंजी से इस बंदरगाह का विकास अपने दूरगामी हितों को ध्यान में रखकर कर रहा है। इसके मार्फत एक तो चीन हिंद महासागर तक सीधी पहुंच बनाने को आतुर है, दूसरे खाड़ी के देशों में पकड़ मजबूत करना है। चीन इसी क्रम में काशगर से लेकर ग्वादर तक 3000 किलोमीटर लंबा आर्थिक गलियारा बनाने में भी लगा है। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए चीन पाकिस्तान में 46 लाख अरब डॉलर खर्च कर रहा है। इससे यह आशंका उत्पन्न हुई थी कि चीन इस बंदरगाह से भारत की सामरिक गतिविधियों पर खुफिया नजर रखेगा। अलबत्ता अब भारत को ग्वादर के ईदर्गिद चीन व पाकिस्तानी गतिविधियों पर नजर रखने के लिए मचान मिल जाएगा। इसके निर्मित होने के बाद भारत और ईरान के बीच व्यापार में आसानी होगी। अफगानिस्तान समेत मध्य-एशियाई देशों तक आयात-निर्यात की जाने वाली वस्तुओं की पहुंच सुगम होगी। इस सिलसिले में भारत अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण के लिए जो विकास परियोजनाएं चला रहा है, उनमें गति आएगी। क्योंकि अब तक पाकिस्तान इन पुनीत कार्यों में रोड़े अटकाता रहा है और चीन भी नहीं चाहता कि भारत के संबंध अफगानिस्तान से मधुर बनें। लेकिन भारत ने चीन समेत उन वैश्विक शक्तियों को अब कूटनीतिक पटकनी दे दी है, जो भारत के मध्य एशियाई देशों से संबंध खराब बनाए रखने की कुटिल चालें चल रहे थे। हालांकि इस बंदरगाह में निवेश के अनुपात में आर्थिक लाभ होगा ही, इसे लेकर आशंकाएं जरूर हैं, क्योंकि ईरान खुद चाबहार के विकास में पूंजी लगाने में कंजुसी बरतता रहा है। जबकि ग्वादर में तेल शोधन संयंत्र लगाने के लिए ईरान चार अरब डॉलर खर्च करने को तैयार है। किंतु चाबहार का सामरिक, रणनीतिक और कूटनीतिक महत्व है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
चाबहार की तरह ही फारस की खाड़ी में खोजे गए बी-गैस क्षेत्र के विकास के अधिकार भारतीय कंपनी ओएनजीसी विदेश लिमीटेड को मिलना अहम् है। इसके अलावा ईरान के ऊर्जा संसाधनों पर भी भारत 20 अरब डॉलर खर्च करेगा। ईरान और भारत के बीच गैस पाइपलाइन बिछाने का प्रस्ताव भी लंबित है। यह लाइन पाकिस्तान होकर गुजरनी है, इसलिए लगता नहीं कि पूरी होगी। गैस व तेल के सिलसिले में हुए नए समझौते के बाद भारत अब बड़ी मात्र में कचा तेल ईरान से ही खरीदेगा। भारत को अपनी खपत का लगभग 80 फीसदी तेल खरीदना पड़ता है। एक अनुमान के मुताबिक भारत इस वर्ष करीब 90 लाख टन तेल खरीदेगा। ईरान से तेल खरीदना सस्ता पड़ता है। यहां तेल की कीमत भी अमेरिकी डॉलर की बजाय रुपये में चुकानी होती है। दूसरी मुख्य बात यह है कि भारत के तेल शोधक संयंत्र ईरान से आयातित कचे तेल को परिशोधित करने के लिहाज से ही तैयार किए गए हैं। गोया, ईरान के तेल की गुणवत्ता श्रेष्ठ नहीं होने के बावजूद भारत के लिए लाभदायी है। इन समझौते के अलावा ईरान से वाणिय, पर्यटन, संस्कृति और वहां के विश्व विद्यालयों में हिंदी की पढ़ाई को लेकर भी करार हुए हैं। इससे हिंदी के पठन-पाठन का क्षेत्र विस्तार होगा। व्यापार संधि के तहत भारत ईरान को बासमती चावल, सोयाबीन, शक्कर, मांस, हस्तशिल्प और दवाएं निर्यात करेगा। इस निर्यात में सभी वस्तुएं तय मूल्य से 20 प्रतिशत अधिक मूल्य पर निर्यात की जाएंगी। इससे भारतीय व्यापार में गति आएगी।
नरेंद्र मोदी का इस्लामिक देशों से द्विपक्षीय मधुर संबंध बनाने के साथ-साथ यह मकसद भी रहता है कि ये देश आतंकवाद के खात्मे की मुहिम में भी भारत का साथ दें। मोदी संयुक्त अरब-अमीरात, सऊदी अरब के साथ खाड़ी के दूसरे देशों को यह अछी तरह से जताते रहे हैं कि आतंकवाद के चलते इन देशों में शांति और स्थिरता कायम नहीं हो सकती है। इसलिए ये देश आतंकवाद के विरुद्ध भारत की लड़ाई में साथ दें। मोदी के इस सुर में तमाम मुस्लिम देश सुर मिलाने भी लग गए हैं। पाकिस्तान को नजरअंदाज कर ईरान ने भारत के साथ सामरिक और रणनीतिक महत्व के हुए समझौते इस तथ्य की तस्दीक हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)(Dainik jagran)

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