Thursday 12 May 2016

सैन्य सुधार का समय (हर्ष वी. पंत)

चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग अब सेना के ज्वाइंट ऑपरेशन कमांड सेंटर के प्रमुख कमांडर के रूप में भी जाने जाएंगे। दरअसल सेना की वर्दी में लिपटी हुई यह नई पदवी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के ऊपर उनके मौजूदा अधिकार की पुन: पुष्टि से ज्यादा कुछ नहीं है। शी चीनी संस्थाओं पर अपने नियंत्रण को और सुदृढ़ करने की कोशिश कर रहे हैं और उनकी नई उपाधि मुख्य रूप से इसी तथ्य को और मजबूत करेगी कि शी उनके सर्वेसर्वा हैं। जहां पूर्व चीनी राष्ट्रपति ने कार्यकारी निर्णय लेने की शक्ति पीपुल्स लिबरेशन आर्मी यानी पीएलए को सौंप दी थी वहीं शी चाहते हैं कि कार्यकारी शक्ति भी उन्हीं के पास रहे। चीन के सेंट्रल मिलिट्री कमीशन के ज्वाइंट बैटल कमांड सेंटर के दौरे के दरम्यान शी ने अधिकारियों से एक कमांड प्रणाली बनाने का आग्रह किया, जो कि युद्ध जीतने में सक्षम हो। सरकारी न्यूज एजेंसी शिन्हुआ के मुताबिक उन्होंने कहा कि मौजूदा स्थिति में एक ऐसे बैटल कमांड की जरूरत है, जो अत्यधिक सामरिक तथा रणनीतिक, समन्वित, समयबद्ध, पेशेवर और सटीक हो। बैटल कमांड की क्षमताओं में बढ़ोतरी के लिए कोशिश की जानी चाहिए, ताकि वह युद्ध लड़ने और उन्हें जीतने में सक्षम हो सके।1अपनी इच्छा के अनुरूप शी ने पीएलए के बड़े पैमाने पर पुनर्गठन की प्रक्रिया आरंभ कर दी है। इसके लिए वह सेना के विभिन्न क्षेत्रीय इकाइयों को एकजुट कर रहे हैं। चीनी सरकार करीब तीन लाख सेना के जवानों की छंटनी के लिए भी सक्रियता से काम कर रही है। इसके लिए दर्जनों भ्रष्ट अधिकारियों को गिरफ्तार किया गया है और अक्षम जवानों की पहचान कर उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है। पीएलए के पुनर्गठन की यह असाधारण प्रक्रिया लंबी चलने वाली है। उम्मीद है कि 2020 तक इस लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकेगा। 1950 के बाद पीएलए का यह सबसे व्यापक और मौलिक पुनर्गठन है। उस समय सिविल वॉर के बाद रूस ने चीन को अपनी सेना के गठन में मदद की थी। उसका मॉडल कुछ-कुछ सोवियत प्रणाली की तरह था। पुनर्गठन के बाद सेना पेशेवर तरीके से काम करेगी। हालांकि चीन के इस कदम से कई सवाल खड़े हुए हैं। मसलन चीनी सेना के शीर्ष नेतृत्व की संरचना में बदलाव के मायने क्या हैं? आतंरिक और बाहरी खतरों से निपटने के लिए सेना के जवानों, रिजर्व और गैर सैन्य बलों की क्या भूमिका होगी? हालांकि इससे एक बात पूरी तरह से साफ है कि चीन की भविष्य की सेना आज की मौजूदा सेना से अलग होगी। यही एशिया के देशों की चिंता का मुख्य कारण है। 1जहां चीन ने अपनी सेना में सुधार और उसके आधुनिकीकरण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है वहीं भारत अपने रक्षा सेक्टर में सुधार के प्रति उदासीन है। दरअसल उचित संस्थागत व्यवस्थाएं एक देश को इस योग्य बनाती हैं कि वह अपनी कूटनीतिक, सैन्य और आर्थिक क्षमताओं का सफल तरीके से प्रयोग कर सके। अफसोस है कि भारत इसके प्रति निष्क्रिय नजर आता है। भारत में अधिकांश सरकारों ने इस संबंध में दीर्घकालिक रणनीतिक सोच की कमी का रोना रोया है। हालांकि किसी भी सरकार ने इस कमी को दूर करने का ठोस प्रयास नहीं किया। राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद को वास्तव में जो काम करना चाहिए, उसे वह नहीं करती है। अब इसे रक्षा मंत्रलय से संबद्ध कर देना चाहिए और साथ ही चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ को सरकार को सिर्फ यह सलाह देनी चाहिए कि सेना को कैसे बेहतर बनाएं। तथ्य यह है कि एक के बाद एक आई सभी भारतीय सरकारें एक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति बनाने में असफल रही हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि देश में संस्थागत क्षरण आरंभ हो गया। साथ ही भविष्य की अपनी चुनौतियों से पार पाने के लिए जरूरी संरचनात्मक बदलाव लाने और हथियारों को खरीदने के लिए रणनीतियां और योजनाएं बनाने में भारतीय सेना अक्षम हो गई। इसके लिए सिर्फ राजनीतिक वर्ग और नौकरशाही ही जिम्मेदार नहीं है, बल्कि भारतीय सेना भी जवाबदेह है। किसी भी देश में ऐसा नहीं होता है कि वहां की सेना अपनी सरकार से जरूरतों के हिसाब से संसाधन हासिल कर ले, लेकिन एक प्रभावी सैन्य संगठन को इतना सक्षम जरूर होना चाहिए कि उसके पास जितने संसाधन हैं उसका ही वह अधिकतम प्रयोग कर सके। सिर्फ संसाधनों की आपूर्ति ही भारतीय सैन्य बलों को काबिल नहीं बना सकती है। उनमें सकारात्मक बदलाव के लिए सैन्य नेतृत्व के नीतिगत दिशा-निर्देश और जवानों की दी जाने वाली टेनिंग की गुणवत्ता भी बहुत मायने रखती है। दरअसल भारत के रक्षा तंत्र में व्यापक बदलाव लाने की जरूरत पर बहुत पहले ही स्वयं सेना के जवानों की ओर से बहस की शुरुआत की जानी चाहिए थी। 1चर्चा करने की जरूरत है कि क्या भारत के पास 21वीं सदी की चुनौतियों का सामना कर सकने योग्य सेना है, खासकर रणनीति और संरचना के स्तर पर? क्या भारतीय सेना के पास जिस तरह के साजोसामान हैं, उसी के अनुरूप अपनी रणनीति और संरचना को विकसित किया गया है? क्या भारत की सेना के पास ऐसी क्षमता है कि वह बहुत ही कम समय की सूचना पर सैन्य कार्रवाई और सैन्य ऑपरेशन शुरू कर सके? जैसे कि 2001-02 में ऑपरेशन पराक्रम के दौरान करना चाहती थी, लेकिन कर नहीं सकी थी। आज भारतीय सैन्य बलों को मानव संसाधन की बढ़ती कमी और बजट की कमी के बीच संतुलन लाने के उपाय खोजने होंगे। मानव संसाधन नीति को आधुनिक बनाने के सिवाय सेना के सामने और कोई चारा नहीं है। 1(लेखक लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्राध्यापक हैं)(Dainik jagran)

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