Monday 14 November 2016

न्यायपालिका : न्यायाधीश नियुक्त किये जाएं (प्रमोद भार्गव)


न्यायाधीशों की कमी पर सर्वोच्च न्यायालय के प्रमुख न्यायाधीश टीएस ठाकुर पहले भी नाराजी जता चुके हैं। अब एक बार फिर उन्होंने जजों की कमी जताते हुए अदालतों में ताला लगाने की स्थिति निर्मित होने की बात कही है। इस बाबत उन्होंने कर्नाटक उच्च न्यायालय में जजों की कमी के चलते एक पूरा भूतल बंद हो जाने की बात कही। साथ ही, ठाकुर ने तल्ख लहजे में कहा कि सरकार नौ महीनों में भी 77 नाम कॉलेजियम में भेजे थे, मगर अब तक महज 18 जजों के नाम ही तय हो पाए हैं। उन्होंने पहले भी कहा था, ‘‘जजों की कमी के कारण समय रहते न्याय संभव नहीं हो पा रहा है। अंग्रेजों के जमाने में 10 साल में न्याय मिलता था, वहीं अब न्याय पाने के लिए सौ साल भी कम हैं।’ यह कहते हुए उनकी आंखें नम हो गई थीं। सही है कि अदालतों में चार हजार पद खाली हैं। तीन करोड़ 40 लाख मामले लंबित हैं। लेकिन जजों की कमी के इतर भी कई ऐसे कारण हैं, जिनके चलते मुकदमों में देरी होती है, जबकि इन वजहों का मामले को सीधे-सीधे प्रभावित करने से कोई वास्ता नहीं होता है। हमारे यहां संख्या के आदर्श अनुपात में कर्मचारियों की कमी का रोना अक्सर रोया जाता है। केवल अदालत ही नहीं पुलिस, शिक्षा और स्वास्य विभागों में भी गुणवत्तापूर्ण सेवाएं उपलब्ध न कराने का यही बहाना है। जजों की कमी कोई नई बात नहीं है, 1987 में विधि आयोग ने हर 10 लाख की आबादी पर जजों की संख्या 10 से बढ़ाकर 50 करने की सिफारिश की थी। फिलहाल, यह संख्या 17 कर दी गई है। अदालतों का संस्थागत ढांचा भी बढ़ाया गया है। हमारे यहां अस्पताल ही नहीं राजस्व और पुलिस विभाग के लोग भी लगभग 365 दिन ही काम करते हैं। किसी आपदा के समय इनका काम और बढ़ जाता है। इनके कामों में विधायिका और खबरपालिका के साथ समाज का दबाव भी रहता है। बावजूद ये लोग दिन-रात कानून के पालन के प्रति सजग रहते हैं जबकि अदालतों पर कोई अप्रत्यक्ष दबाव नहीं होता है। यही प्रकृति वकीलों में भी देखने में आती है। हालांकि वकील अपने कनिष्ठ वकील से अक्सर इस कमी की वैकल्पिक पूर्ति कर लेते हैं। लेकिन वकील जब प्रकरण का ठीक से अध्ययन नहीं कर पाते अथवा मामले को मजबूती देने के लिए किसी दस्तावेजी साक्ष्य को तलाश रहे होते हैं, तो बिना किसी ठोस कारण के तारीख आगे खिसकाने की अर्जी लगा देते हैं। विडंबना है कि बिना कोई ठोस पड़ताल किए न्यायाधीश इसे स्वीकार भी कर लेते हैं। कई मामलों में गवाहों की अधिक संख्या भी मामले को लंबा खींचने का काम करती है। इस तरह के एक ही मामले में गवाहों की संख्या 50 तक देखी गई है जबकि घटना के सत्यापन के लिए दो-तीन गवाह पर्याप्त होते हैं। एफएसएल रिपोर्ट भी समय से नहीं आने के कारण मामले को लंबा खींचती है। फॉरेंसिक विज्ञान प्रयोगशालाओं की कमी होने के कारण अब तो सामान्य रिपोर्ट आने में भी एक से ड़ेढ़ साल का समय लग जाता है। अदालतों में मुकदमों की संख्या बढ़ाने में राज्य सरकारों का रवैया भी जिम्मेवार है। वेतन विसगंतियों को लेकर एक ही प्रकृति के कई मामले ऊपर की अदालतों में विचाराधीन हैं। इनमें से अनेक तो ऐसे प्रकरण हैं, जिनमें सरकारें आदर्श व पारदर्शी नियोक्ता की शत्रे पूरी नहीं करती हैं। नतीजतन, जो वास्तविक हकदार हैं, उन्हें अदालत की शरण में जाना पड़ता है। इसी तरह पंचायत पदाधिकारियों और राजस्व मामलों का निराकरण राजस्व न्यायालयों में न होने के कारण न्यायालयों में प्रकरणों की संख्या बढ़ रही है। जीवन बीमा, दुर्घटना बीमा और बिजली बिलों का विभाग स्तर पर नहीं निपटना भी अदालतों पर बोझ बढ़ा रहे हैं। कई प्रांतों के भू-राजस्व कानून विसंगतिपूर्ण हैं। इन विसंगतिपूर्ण धाराओं का विलोपीकरण करके अवैध कब्जों से संबंधित मामलों से निजात पाई जा सकती है। लेकिन नौकरशाही ऐसे कानूनों का वजूद बने रहना चाहती है, क्योंकि इनके बने रहने पर ही इनके रौब-रुतबा और पौ-बारह सुनिश्चित हैं। कारागारों में विचाराधीन कैदियों की बड़ी तादाद होने का एक बड़ा कारण न्यायिक और राजस्व अदालतों में लेट-लतीफी और आपराधिक न्याय प्रक्रिया की असफलता को माना जाता है। लेकिन अदालतें इस हकीकत को न्यायालयों और न्यायाधीशों की कमी का आधार मानकर अक्सर नकारती हैं। इसलिए अच्छा है जजों की कमी से अलहदा कारणों की पड़ताल करके उन्हें हल करने के उपाय तलाशे जाएं। (RS)

No comments:

Post a Comment