Monday 28 November 2016

इलाज तो अच्छा है, अब संवेदनशीलता भी दिखाएं (चेतन भगत) (अंग्रेजी के युवा उपन्यासकार)


नोटबंदी परभ्रम बढ़ता ही जा रहा है। एक तरफ तो इसे जोरदार समर्थन मिल रहा है तो दूसरी तरफ लंबी कतारों, अर्थव्यवस्था को इससे पहुंच रहे नुकसान और लोगों की तकलीफों पर खबरें भी हैं। यह चल क्या रहा है? नोटबंदी भी किसी भी अन्य नीति की तरह है, क्योंकि इसमें फायदे हैं तो इसी में निहित परेशानियां भी हैं। सबसे नज़दीकी मिसाल कैंसर के इलाज में इस्तेमाल होने वाली कीमोथैरेपी है। यह बहुत ही तकलीफदेह इलाज है, जिसके जबर्दस्त साइड-इफेक्ट हैं, लेकिन इस घातक बीमारी से निपटने में इतना कष्ट भुगतना उचित समझा जाता है। सबसे महत्वपूर्ण तो यह है कि कीमोथैरेपी के प्रति एक अच्छे डॉक्टर का रवैया किसी अन्य इलाज की तुलना में अलग होता है।
इसके लिए कीमोथैरेपी कैसे काम करती है इसे समझना उपयोगी होगा। शरीर में कैंसर कोशिकाएं बहुत तेजी से विभाजित होने वाली कोशिकाएं होती हैं। जब ये पूरे शरीर में फैल जाती हैं तो कुछ रासायनिक दवाएं रक्त में प्रवाहित की जाती हैं ताकि तेजी से विभाजित होती कोशिकाओं को मारा जा सके। समस्या यह है कि ये कीमो ड्रग्स तेजी से विभाजित होतीं अन्य अच्छी कोशिकाओं को भी मार देती हैं जैसे हेयर फॉलिकल्स, पाचन नली की कोशिकाएं या रक्त का निर्माण करने वाली बोन मैरो की कोशिकाएं। इस प्रकार रोगी को कई प्रकार के अप्रिय साइड इफेक्ट सहने पड़ सकते हैं। कुछ मामलों में तो इसके कारण रोगी की मौत भी हो सकती है।
इसलिए ऐसी तीव्रता वाला इलाज दे रहे डॉक्टरों के पास हमेशा साइड इफेक्ट से निपटने की योजना होती है। इसमें कीमो ड्रग्स के साथ अन्य दवाएं देना भी शामिल हो सकता है ताकि साइड इफेक्ट को सीमित रखा जा सके। डॉक्टर के पास कीमो ड्रग्स ठीक मात्रा में देने की भी योजना रहती है। बहुत कम हुई तो असर ही नहीं होगा, ज्यादा हुई तो रोगी की मौत हो सकती है। दोनों दृष्टि से यह कोई आसान इलाज नहीं है- तो रोगी के लिए और ही डॉक्टर के लिए। यह तो अंतिम उपाय है।
भारत में कालाधन कैंसर की तरह है। विभिन्न आकार-प्रकारों में यह देशभर में फैल गया है। हमारी अर्थव्यवस्था के लिए लगभग समानांतर परिसंचरण प्रणाली की तरह। करेंसी नोट का इस्तेमाल इसका बहुत बड़ा भाग है। कालाधन आर्थिक वृद्धि को रोकता है, कार्यकुशलता को मार डालता है और हमें हमारी सर्वोत्तम क्षमता से नीचे बनाए रखता है। इस हद तक सरकार द्वारा कालेधन की समस्या का कीमोथैरेपी जैसा इलाज करना औचित्यपूर्ण है। इस तरह नोटबंदी का कदम स्वागतयोग्य है।
हालांकि, सरकार (या इसके प्रशंसकों) द्वारा कीमो करने के आइडिया पर शेखी बघारना और इसके साथ आए कष्टप्रद साइड इफेक्ट पर गौर करने की इच्छा रखना स्वीकार्य नहीं है। कोई डॉक्टर रोगी को कीमो थैरेपी देने के बाद शेखी नहीं बघारता। वे रोगी की तकलीफ कम करने के लिए काम करते हैं और अच्छी, कमजोर कोशिकाओं पर असर को सीमित रखते हैं। भारत के गरीबों के लिए घोर गरीबी के दुश्चक्र में फंसने के लिए एक ही घातक वार काफी है- कुछ महीनों के लिए दैनिक मजदूरी मिले, बचत खत्म हो जाए, क्योंकि कोई बैंक उन्हें लेने को राजी हो, जॉब चला जाए, क्योंकि उनके रोजगार प्रदाता ने धंधा या उद्योग बंद कर दिया, औद्योगिक मंदी जाए अथवा कोई अस्पताल उन्हें लौटा दे- इसके बाद वे फिर अपने पैरों पर कभी खड़े नहीं हो पाते। नोटबंदी की कीमोथैरेपी यह कर सकती है। इसकी उपेक्षा करना यानी इलाज में संवेदनहीनता और गैर-जिम्मेदारी दिखाना है। समाधान कितना ही शानदार हो, यहां तो क्रियान्वयन निर्णायक था और हमने इसे उतनी अच्छी तरह नहीं किया, जो हम कर सकते थे। हमें अब भी वास्तविक अड़चनों का पता नहीं है- नोट छापने वाली प्रेस, कैश पहुंचाने वाली वैन या बैंक शाखाएं इसके लिए जिम्मेदार हैं? ऐसा लगता है कि फाइनेंस के लोग मीटिंग में बैठें और योजना की तारीफ करने लगें। किसी ने लॉजिस्टिक प्रोफेशनल यानी डिलीवरी के पेशेवरों को तो आमंत्रित किया और उनकी सुनी, जबकि यह सब करने के लिए उनकी जरूरत थी। हमने एक खतरनाक इलाज किया है। शायद इसकी जरूरत थी, लेकिन यह कुछ लोगों के लिए अत्यंत कष्टदायक है। आपात स्तर पर उससे निपटने के बाद हम खुद की पीठ थपथपा सकते हैं, अपने को महिमामंडित कर सकते हैं।
हमें इस कदम का लागत लाभ के आधार पर विश्लेषण भी करना चाहिए, फिर चाहे ब इसे उलटा भी जा सके। सबसे बड़ा फायदा तो वह पैसा है जो बैंक जाकर बदला नहीं गया है, जिसे (वे नए नोट जिस पर किसी ने दावा नहीं किया) सरकार अपने पास रख सकती है। यही सरकार का मुनाफा है। यह कदम कर चोरी करने वालों पर कड़ी कार्रवाई का इरादा भी दर्शाता है, जो इसका अच्छा प्रभाव है। किंतु पूरी कवायद की लागत, जीडीपी के नुकसान, संभावित मंदी, इस सुस्ती से मुनाफा टैक्स घटने, बाजार की गिरावट से सार्वजनिक क्षेत्र के होल्डिंग्स की कीमत में गिरावट और लोगों को हुए कष्ट के संदर्भ में इस कदम का आकलन किया जाना चाहिए।
अंत में, यह कदम बहुत सारा गंदा पानी तो निकालता है, लेकिन रिसती छत नहीं सुधारता। यदि कालाधन बना तो फिर इकट्‌ठा हो जाएगा, शायद इस बार नए नोटों में या कीमती धातुओं के रूप में। यदि कीमोथैरेपी के बाद रोगी फिर गुटखा खाने लगे तो क्या फायदा। आखिरकार हमें कर सुधार करने ही होंगे और लोगों का भरोसा पाना होगा कि सरकार को दिया पैसा खाया नहीं जाएगा बल्कि उसका सदुपयोग होगा। राजनीतिक दल अब भी आईडी प्रूफ के बिना 20 हजार रुपए तक का चंदा दिखा सकते हैं (जबकि हमसे अपने ही दो हजार रुपए निकालने पर बैंक अमिट स्याही लगा देगी, पैन कार्ड के ब्योरे मांगेगी)। यह बड़ी खामी है। दल पैसे को 20-20 हजार की इकाइयों में बांटकर फर्जी लोगों के नाम कर देंगे। इसमें सुधार क्यों नहीं करते? सरकार की कीमोथैरेपी सराहनीय है, लेकिन अब सहानुभूति दिखाकर साइड इफेक्ट से निपटना प्राथमिकता होनी चाहिए। उसके बाद हम यह सुनिश्चित करें कि स्थिति फिर वही हो जाए। कष्टदायक इलाज का औचित्य तभी है जब हम कैंसर पैदा करने वाले तत्वों का भी सफाया कर दें।
(येलेखक के अपने विचार हैं) (DB)

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