Monday 28 November 2016

कितने आजाद हैं स्वतंत्र निदेशक (आर सुकुमार, संपादक, मिंट)

आज मैं कुछ खबरों को देख रहा था। टाटा-मिस्त्री विवाद में आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है। नोटबंदी से जुड़ी बहसों में नए-नए अर्थशास्त्री पैदा रहे हैं, और इनके उभरने की गति रिजर्व बैंक के नए नोट छापने या सरकार द्वारा नियम बदलने से भी तेज है। और उत्तरी ध्रुव पर व उसके आसपास तापमान फिलहाल जितना होना चाहिए, उससे 20 डिग्री सेल्सियस ज्यादा है। तीसरी खबर हमारे लिए ज्यादा चिंताजनक है। इस साल आर्कटिक में तापमान ज्यादा होने के कारण समुद्री बर्फ अपने अब तक के सबसे कम स्तर पर रिकॉर्ड की गई है। यह 30 साल के औसत से भी काफी नीचे है। इससे पहले यहां समुद्री बर्फ का सबसे कम स्तर 2012 में रिकॉर्ड किया गया था। नवंबर में सर्दी के आते ही यहां बर्फ आकार लेने लगती है।
बहरहाल, इस मसले पर फिर कभी बात करूंगा। पहले चर्चा नोटबंदी की। 1000 और 500 के पुराने नोट को बंद हुए करीब तीन हफ्ते निकल चुके हैं, मगर इस कदम का दीर्घकालिक प्रभाव क्या होगा, यह अब तक साफ नहीं है। मिंट में निरंजन राजाध्यक्ष ने अपने लेख में लिखा है, ‘असली पहेली तो यही है कि लंबे समय में इस कदम का क्या मतलब है? इसका जवाब काफी कुछ इसमें छिपा है कि या तो यह लोगों के व्यवहार में बदलाव लाएगा और वे भविष्य में कम नगद का इस्तेमाल करेंगे। या फिर कर आधार बढ़ाया जाएगा, क्योंकि तब अधिक से अधिक लेन-देन औपचारिक वित्तीय प्रणाली के माध्यम से शुरू हो जाएगा।’
हालांकि निरंजन की बातें पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मेल नहीं खातीं। संसद में नोटबंदी पर चर्चा के दौरान ब्रिटिश अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड कीन्स का उल्लेख करते हुए मनमोहन सिंह ने कहा, ‘दीर्घकाल में तो हम सब मर जाएंगे।’ वे मौद्रिक सुधार को लेकर कीन्स की कही गई बातों से तार जोड़ रहे थे। कीन्स ने कहा था- ‘मौजूदा वक्त में यह ‘दीर्घावधि’ उलझाने वाला नियामक है। आगे चलकर हम सब मर जाएंगे। अगर मुश्किल वक्त में अर्थशास्त्री यह कहते हैं कि तूफान के खत्म होने के काफी दिनों के बाद समुद्र फिर से शांत हो जाएगा, तो उन्होंने या तो काफी सतही काम किया है या फिर बहुत बेकार।’ वैसे, निरंजन अपने लेख का अंत करते हुए लिखते हैं कि नोटबंदी से बुनियादी बदलाव आएगा जरूर, पर अभी हमें यह नहीं पता कि उसका स्वरूप क्या होगा?
उधर, टाटा संस के अध्यक्ष पद से साइरस मिस्त्री की अचानक विदाई के एक महीने बाद भी विवाद जारी है। दोनों पक्ष लंबे और एक अप्रिय मुकाबले को तैयार हैं, जिसमें शेयरधारक भी शामिल होंगे और शायद अदालतें भीं। यह अब तक साफ नहीं हो सका है कि टाटा संस ने मिस्त्री को क्यों हटाया? और न ही यह साफ है कि इस लड़ाई में मिस्त्री क्या पाने की उम्मीद कर रहे हैं? हालांकि इस विवाद में टाटा के स्वतंत्र निदेशकों को भी घसीट लिया गया है। कुछ वाकई इस लड़ाई के पक्ष में हैं, जबकि कुछ नहीं। अगले कुछ दिन-सप्ताह या फिर महीनों में उन्हें अपनी भूमिका मिल जाएगी, मगर मेरा यह सवाल है कि स्वतंत्र निदेशक आखिर किस हद तक स्वतंत्र हैं?
स्वतंत्र निदेशकों की परिभाषा कंपनी ऐक्ट 2013 में बखूबी परिभाषित की गई है। अगर कंपनियां इस कानून की धारा 149 (6) का अक्षरश: पालन करतीं, तो शायद उन्हें यह स्वीकार करना पड़ता कि उनके बोर्ड में अधिकतर स्वतंत्र निदेशक वास्तव में स्वतंत्र नहीं हैं। जैसे कि इंफोसिस के पूर्व चेयरमैन एनआर नारायाणमूर्ति के रिश्तेदार डीएन प्रहलाद को कंपनी के बोर्ड में शामिल करने के बाद एक छद्म सलाहकार कंपनी ने कहा था कि डीएन प्रहलाद ‘संस्थापकों के मनोनीत (निदेशक)’ लगते हैं, कोई स्वतंत्र निदेशक नहीं।
हालांकि यह मामला अपवाद नहीं है। कई भारतीय कंपनियों में वर्षों से जो हो रहा है, वह यही बताता है कि स्वतंत्र निदेशक हमेशा स्वतंत्र नहीं होतें; भले ही वे तमाम मानकों पर खरे उतरें। कुछ मामलों में तो यह देखा गया है कि उद्योगपति या संरक्षक उन पूर्व नौकरशाहों को यह पद देते हैं, जिन्होंने पिछले दिनों उनके हक में कोई काम किया था। यहां मेरा मकसद तमाम पूर्व नौकरशाहों पर कीचड़ उछालना नहीं हैं, जो बतौर स्वतंत्र निदेशक किसी न किसी कंपनी से जुड़े हुए हैं।
कुछ मामलों में तो उद्योगपति अपने दोस्तों या दोस्त के संबंधियों को स्वतंत्र निदेशक बनाते हैं, जो शायद ही उनके फैसले की मुखालफत करते हैं। मगर मसला सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। ऐसे स्वतंत्र निदेशक, जो ऊपर दी गई श्रेणियों में नहीं आते, वे भी बमुश्किल उन शेयरधारकों या संरक्षकों के खिलाफ जाते हैं, जिन्होंने उन्हें इस ओहदे पर बिठाया होता है। असलियत में कुछ तो इनके कृतज्ञ होते हैं, क्योंकि उन्हें पर्याप्त वेतन मिलता है और कंपनी के फायदे में उनकी हिस्सेदारी होती है।
स्वतंत्र निदेशकों को लेकर बना 2005 का कानून, उनके कार्यकाल से जुड़ा 2013 का कानून और महिला निदेशकों के संदर्भ में बना 2015 का कानून भारतीय कंपनियों के आंतरिक प्रशासन में सुधार करता और बोर्ड को बेहतर बनाता दिखता है। 2005 के कानून में जहां यह तय किया गया है कि सूचीबद्ध कंपनियों के बोर्ड में एक-तिहाई स्वतंत्र निदेशक होंगे, वहीं 2013 का कानून कहता है कि स्वतंत्र निदेशक अधिकतम दस वर्ष तक काम करेंगे यानी उन्हें लगातार दो कार्यकाल ही मिलेंगे।
2015 के कानून में महिला अधिकारों की बात कही गई है और बोर्ड में कम से कम एक महिला निदेशक (वह स्वतंत्र हो या नहीं) रखने के निर्देश सूचीबद्ध कंपनियों को दिए गए हैं। इन कानूनों का थोड़ा-बहुत प्रभाव पड़ा है, मगर अंतत: किसी बोर्ड की बेहतरी इसी पर निर्भर करेगी कि उसके स्वतंत्र निदेशक कितने कुशल हैं और उन्हें किस हद तक आजादी मिली हुई है। ऐसे में, मिस्त्री और टाटा का यह विवाद असल में, तमाम नियामकों, संरक्षकों, स्वतंत्र निदेशकों, शेयरहोल्डर एडवाइजरी फर्म व मीडिया को एक बार फिर इस व्यवस्था पर वही पुराने सवाल उठाने का मौका देता है।(Hindustan)

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