Monday 28 November 2016

न्याय की आस में आदिवासी (भारत डोगरा)

हाल के समय में राजस्थान के बांसवाड़ा जिले में वन-अधिकार कानून के क्रियान्वयन पर एक जन-सुनवाई का आयोजन किया गया। इस जन-सुनवाई में अनेक आदिवासी किसानों ने बताया कि वे वर्षो से अपने आवेदन पत्र लेकर ग्राम स्तरीय वन समिति से लेकर उपखंड स्तरीय समिति तक भटक रहे हैं। लेकिन कोई उनका आवेदन पत्र लेकर रसीद देने तक को तैयार नहीं है। बागड़ मजदूर किसान संगठन बांसवाड़ा की ओर से आयोजित इस जन-सुनवाई में कई वक्ताओं ने बताया कि दावा पेश करने की प्रक्रिया में ऐसी अनेक प्रवृत्तियां देखी गई हैं जो कानून और उसकी मूल भावना के विरूद्ध हैं। इस जन सुनवाई का महत्व इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए कि राजस्थान में सबसे अधिक व्यक्तिगत वन-अधिकार के दावे बांसवाड़ा जिले में प्राप्त हुए हैं। लेकिन सबसे अधिक दावे निरस्त भी इसी जिले में हुए हैं। यदि किसी बहुत उपेक्षित-शोषित समुदाय को यह बार-बार विश्वास दिलाकर कहा जाए कि जो अन्याय पहले तुमसे हुआ है, उसे अब पूरी तरह दूर किया जाएगा। मगर फिर यह अन्याय दूर करने के स्थान पर उसे और बढ़ा दिया जाए तो उस समुदाय का विश्वास कितनी बुरी तरह से टूट जाएगा इसकी कल्पना की जा सकती है।
कुछ यही स्थिति इन दिनों आदिवासियों और अन्य वनवासियों को ङोलनी पड़ी है। वर्ष 2005 और 2008 में एक लंबी और पेचीदा प्रक्रिया के बाद अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वनवासी वन अधिकार मान्यता कानून बना और कार्यान्वित होना आरंभ हुआ। इस कानून को सामान्य भाषा में वनाधिकार कानून कहा गया। इस कानून की पृष्ठभूमि यह थी कि आदिवासियों से बिना उचित विचार-विमर्श के बहुत सी भूमि को वन-भूमि घोषित कर दिया गया जिसके कारण वहां खेती कर रहे आदिवासियों-वनवासियों की खेती को अचानक अवैध घोषित कर दिया गया। तब से उन्हें यहां खेती करने से रोकने के लिए तरह-तरह से हैरान-परेशान किया गया। उनका बहुत उत्पीड़न किया गया। वनाधिकार कानून ने इसे ‘ऐतिहासिक अन्याय’ कहते हुए इसे दूर करने के लिए एक प्रक्रिया निर्धारित की, जिसके अंतर्गत ऐसी भूमि पर आदिवासी और परंपरागत वनवासी दावों के प्रमाण जमा किए जाएंगे एवं एक विधि सम्मत प्रक्रिया द्वारा जिन दावों को स्वीकार किया जाएगा उस भूमि पर आदिवासियों-वनवासियों का अधिकार सुनिश्चित कर दिया जाएगा। चूंकि इस कानून का उद्देश्य ही आदिवासियों से हुए ऐतिहासिक अन्याय को दूर करना बताया गया था, अत: सामान्यत: यही माना गया कि और जो भी पेचीदगियां हों पर आदिवासियों-वनवासियों की स्थिति को पहले से तो बहुत सुधारना ही है। अत: यह मान्यता व्यापक स्तर पर बनी कि इनमें से अधिकांश दावों को स्वीकृति मिल जाएगी और यह आदिवासी परिवार भविष्य में इस भूमि को बिना किसी झंझट के जोत लेंगे। पर आज जो स्थिति नजर आ रही है वह उम्मीद से बहुत अलग है। पहली समस्या तो यह है कि निरस्त होने वाले दावों की संख्या बहुत अधिक है। दूसरी समस्या यह है कि जिन दावों को स्वीकार किया जा रहा है, उनमें भी ऐसा नहीं है कि पूरे दावे को स्वीकार किया गया हो। ज्यादा संभावना इस बात की है कि पांच बीघे का दावा प्रस्तुत किया गया है तो दो बीघे का ही दावा स्वीकार होगा। यानी जो दावे स्वीकार हुए हैं उनमें से कई में आदिवासी परिवार द्वारा जोती जा रही जमीन पहले से कम हो रही है।
इसका अर्थ यह नहीं है कि वन अधिकार कानून का सही क्रियान्वयन कहीं पर नहीं हुआ है। कुछ क्षेत्रों में जहां निष्ठावान अधिकारियों ने बहुत मेहनत और सहानुभूति से कार्य किया और कुछ स्थानों पर जहां अदिवासियों के जन-संगठन कुछ मजबूत थे या जहां ऐसी दोनों अनुकूल परिस्थितियों का मिलन था, वहां से कुछ अछे समाचार मिले हैं। लेकिन कुल मिलाकर राष्ट्रीय स्तर पर क्रियान्वयन की स्थिति कमजोर और चिंताजनक रही है। कुछ समय पहले आयोजित जन-सत्याग्रह यात्रओं के दौरान आयोजित अनेक जन-सभाओं, जन-सुनवाइयों और संगोष्ठियों में भी यह तथ्य उभर कर सामने आया कि वन अधिकार कानून का क्रियान्वयन बेहत विसंगतिपूर्ण व समस्याग्रस्त है। इन जन-सभाओं में मिले अनेक उदाहरणांे से पता चलता है कि वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन में कितनी गंभीर समस्याएं आ गई हैं। सरकार को चाहिए कि बिना देरी किए इन समस्याओं का समाधान करे ताकि वन अधिकार कानून से आदिवासियों और परंपरागत वनवासियों को वास्तव में राहत मिल सके। झारखंड में आयोजित जन सभाओं में यह तथ्य सामने आया कि पेसा कानून के अंतर्गत ग्रामसभाओं को मजबूत बनाने के बावजूद उनकी अवहेलना हो रही है। पाकुड़ जिले के पफतेहपुर आमाखोरी गांव में आयोजित जनसभा में महेशपुर गांव के एमली हासदा ने कहा कि वर्तमान में कोयला खनन के लिए 32 गांवों को चिन्हत किया गया है और परंपरागत पंचायतों के प्रस्तावों की अवहेलना करते हुए भूमि अधिग्रहण किया गया।
अखिल भारतीय आदिवासी परिषद के रविनाथ कुडु ने कहा कि वास्तव में संथाल परगना कास्तकारी कानून के अंतर्गत परंपरागत प्रधानों के प्रस्तावों को स्वीकार किया जाना चाहिए था जबकि वर्तमान में प्रशासन द्वारा प्रधानों की आपत्तियों पर कार्यवाही नहीं हो रही है। यह एक बहुत पेचीदा और चिंताजनक संभावना उत्पन्न हो गई है कि जिस कानून को आदिवासियों से हुए ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने के लिए बनाया गया था, वह वास्तव में उनसे और अन्याय का कारण बनेगा। इस कानून के क्रियान्वयन के नाम पर उनका बड़े पैमाने पर विस्थापन होगा। जिन्हें कानून में ‘अन्य परंपरागत वनवासी’ की श्रेणी देकर उनसे भी न्याय का वायदा किया गया था, उनकी स्थिति तो सबसे विकट बताई जाती है व कुछ स्थानों पर तो उनके लगभग सभी दावों को निरस्त कर दिया गया है। इस चिंताजनक स्थिति को देखते हुए इस कानून के क्रियान्वयन पर नए सिरे से विचार करना भी जरूरी है। ऐसी स्थिति बनानी होगी जिससे आदिवासियों और अन्य परंपरागत वनवासियों की स्थिति बिगड़े नहीं बल्कि सुधरे।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)(DJ)

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