Monday 28 November 2016

भारत-चीन पर नई जिम्मेदारीे (अभिषेक कुमार )


जलवायु परिवर्तन का सबसे यादा जोखिम झेलने वाले देशों को मोरक्को के मारकेश में 7 से 18 नवंबर तक चले कॉप-22 यानी कॉफ्रेंस ऑफ पार्टीज-22 से कोई राहत नहीं मिली है। हालांकि वहां जुटे 196 देशों के प्रतिनिधियों ने पृथ्वी और पर्यावरण को बचाने के लिए राजनीतिक प्रतिबद्धता को दोहराते हुए तत्काल कार्रवाई की घोषणा की, लेकिन पेरिस क्लाइमेट डील पर अमेरिका में चुने गए 45वें राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के रुख को देखते हुए इस समझौते के ही खटाई में पड़ जाने का खतरा पैदा हो गया है। अब उम्मीद सिर्फ भारत-चीन जैसे विकासशील देशों से ही है, जो स्वच्छ ऊर्जा के विकल्पों की तरफ न सिर्फ खुद बढ़ेंगे बल्कि विकसित देशों को बाध्य करेंगे कि वे पेरिस जलवायु समझौते की लाज रखें। अमेरिका में सत्ता संभालने जा रहे डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन की तरफ ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि वे 2015 में बराक ओबामा द्वारा पेरिस समझौते पर मंजूर की गई शर्तो को ठुकरा देंगे। यह कदम ठीक वैसा ही होगा, जैसा कि अमेरिका पहले 1997 में मंजूर की गई क्योटो संधि के बारे में कर चुका है। क्योटो संधि पर पहले तो अमेरिका ने हामी भरी थी, लेकिन बाद में उसे अनुमोदित करने से इनकार कर दिया था। इससे क्योटो संधि व्यर्थ हो गई थी। अब यदि पेरिस समझौते पर भी अमेरिका नकारात्मक रुख रहा, तो खतरा यह है कि कई अन्य गैर-यूरोपीय अमीर देश अमेरिका की राह पर ही चल पड़ेंगे। और 2020 से लागू होने जा रहे पेरिस समझौते का भविष्य अधर में लटक जाएगा और दुनिया 1997 से पहले वाले युग में पहुंच जाएगी। यहां दो अहम सवाल हैं। पहला यह कि आखिर ट्रंप पेरिस संधि की इतनी मुखालफत क्यों कर रहे हैं और दूसरा यह कि यदि अमेरिका और अन्य गैर-यूरोपीय मुल्क इससे बाहर हो गए तो क्या भारत-चीन आदि देश इसे लागू करते हुए खुद के पर्यावरणीय वजूद और अर्थसत्ता को बचाए रख पाएंगे?
जहां तक पेरिस संधि को लेकर ट्रंप के विरोध की बात है, तो इसकी पृष्ठभूमि इस साल मई में ही तैयार हो गई थी जब उन्होंने अपने चुनाव प्रचार के दौरान ऐलान किया था कि अगर वह राष्ट्रपति बने हैं तो इस संधि को रद्द कर देंगे। उनका मानना था कि यह संधि चीन के हितों का पोषण करती है और असल में यह उसका ही एक षड्यंत्र है। ध्यान में रखना होगा कि 2015 में पेरिस में हुए इस जलवायु परिवर्तन समझौते में तय किया गया था कि जिन विकसित देशों की ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में दो तिहाई हिस्सेदारी है, वे इसमें कटौती करेंगे। चूंकि इससे अगले 50 साल में दुनिया के तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी का अनुमान है, इसलिए उत्सर्जन घटाते हुए तापमान बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री तक सीमित करने का संकल्प जताया गया था। वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर दुनिया तापमान को दो डिग्री सेल्सियस तक नीचे रखने में कामयाब हो जाती है, तो समुद्र का जलस्तर बढ़ने, ग्लेशियरों के पिघलने और बाढ़ व सूखे पर कुछ तो अंकुश रखा जा सकता है। असल में, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के विशेषज्ञों का कहना है कि अगर ग्रीनहाउस गैसों और कार्बन उत्सर्जन पर रोक नहीं लगाई गई तो इस सदी के अंत तक धरती का तापमान 2.9 से 3.4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। यह बढ़ोतरी ऐसे खतरे पैदा करेगी, जिनसे धरती के बचे रहने की संभावना भी खत्म हो सकती है। यही कारण है कि पेरिस समझौते में विकसित देशों के साथ-साथ विकासशील देशों को भी कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के लिए राजी किया गया था। इन सभी के लिए 100 खरब डॉलर का एक वैश्विक कोष बनाने की बात कही गई थी, जिसमें पूरी दुनिया की हिस्सेदारी है। पिछले साल ओबामा ने पेरिस संधि पर सहमति जताते हुए यह संकल्प किया था कि अमेरिका 2025 तक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन 26 से 28 प्रतिशत घटाते हुए उसे 2005 के स्तर पर ले आएगा।
इन संकल्पों और संदेहों के बीच मारकेश में विश्व नेताओं ने यह भरोसा जताया है कि यादातर मुल्क पेरिस संधि की शर्तो की मंजूरी प्रक्रिया अपने यहां पूरी करा लेंगे। ट्रंप के रवैये को देखते हुए वे इस प्रक्रिया को जल्द पूरा कराना चाहते हैं पर इसमें अभी भी कम से कम तीन साल लग सकते हैं। इसके बाद एक साल का वक्त उस प्रक्रिया को अमल में लाने में लगेगा। यह गणित यूं तो ट्रंप के सख्त रवैये के बावजूद पेरिस संधि के वजूद पर कोई बड़ा संकट डालता प्रतीत नहीं होता क्योंकि अगले चार साल में अमेरिका में नए राष्ट्रपति के चयन की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। फिर भी समस्या यह है कि अमेरिकी रुख को भांपते हुए अमेरिका समेत कई अन्य मुल्क पेरिस संधि की शर्तो को मानने से इनकार कर सकते हैं। विवाद का एक बड़ा मुद्दा यह है कि अधिकतम तापमान बढ़ोतरी की मियाद क्या हो। पिछले साल पेरिस में 29 पेज के मसौदे में तीन विकल्प रखे गए थे। पहला तो पुराना दो डिग्री तापमान बढ़ोतरी वाला ही था। दूसरा डेढ़ डिग्री या उससे कम का था और तीसरा डेढ़ से दो डिग्री के बीच। इस मुद्दे पर आगे भी देशों के बीच टकराव होने तय हैं। मिसाल के तौर पर आगे चलकर यदि तापमान अगर डेढ़ डिग्री से नीचे रखने की बात होती है तो कार्बन कटौती और पैसों के मसले पर लड़ाई होगी। मौजूदा दो डिग्री से नीचे की किसी भी स्थिति में हर देश को अपने राष्ट्रीय लक्ष्य बदलने होंगे। ऐसे फैसलों के लिए बड़ी राजनीतिक इछाशक्ति की जरूरत होगी। गरीब देशों को पैसों की मदद कैसे होगी, यह सवाल भी बड़ी लड़ाई का है क्योंकि पेरिस संधि के मसौदे में विकसित देशों के उस बिन्दु को भी शामिल कर लिया गया है जिसमें कहा गया है कि विकसित देशों के अलावा ऐसे हर देश को ग्रीन क्लाइमेट फंड में पैसा डालना होगा, जो बेहतर स्थिति में हो।
बेशक जलवायु बदलाव को रोकने की लड़ाई अभी लंबी चल सकती है। लेकिन भारत जैसे मुल्क के लिए इसमें कई मौके शामिल हैं। भारत चाहे तो इस मामले में वैश्विक नेता की भूमिका निभा सकता है। असल में, भविष्य में भारत बेइंतहा कार्बन उत्सर्जन करने वाले थर्मल पावर संयंत्रों के स्थान पर सौर ऊर्जा संयंत्रों पर अपनी निर्भरता बढ़ा सकता है जिनसे कोई प्रदूषण नहीं होता है। फिलहाल सौर बिजली की कीमत थर्मल प्लांटों से मिलने वाली बिजली के बराबर हो गई है, लेकिन आने वाले वक्त में यह उसी तरह बेहद सस्ती हो सकती है, जैसे मोबाइल कॉल दरों में कटौती हुई है। मामला सिर्फ स्वछ ऊर्जा उत्पादन से पेरिस संधि के लक्ष्यों की प्राप्ति और धरती के संरक्षण का ही नहीं है, बल्कि ऐसे उपायों से हमारे विनिर्माण क्षेत्र को भी फायदा मिल सकता है। असल में, भारत को इस राह पर खास तौर से वायु प्रदूषण के हाल का वाकयों के मद्देनजर बढ़ना ही चाहिए। भले ही अमेरिका पेरिस संधि की शर्तो को मानने में ना-नकुर करे, लेकिन भारत-चीन जैसे देशों के हित में यही है कि वे पर्यावरण संरक्षण की तकनीकों को अपनाएं और धरती समेत खुद को बचाने के लिए प्रतिबद्ध हों। (DJ)

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