Monday 28 November 2016

मतदाताके अधिकारों की दिशा में एक फैसला डॉ. मनोज कुमार संस्थापकहम्मूराबी एंड सोलोमन लॉ फर्म, सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट


सुप्रीम कोर्टने हाल ही में मतदाताओं के हक में एक फैसला दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि किसी प्रत्याशी की शैक्षणिक योग्यता जानना मतदाता का मौलिक अधिकार है। कोई प्रत्याशी यदि इस संबंध में गलत घोषणा करता है तो उसका चुनाव आधिकारिक रूप से खत्म माना जाएगा। इस संबंध में दो अपीलें पृथ्वीराज सिंह और पुखरेम शरतचंद्र सिंह ने एक दूसरे के खिलाफ दायर की थीं। साथ ही इसमें मणिपुर उच्च न्यायालय के फैसले को भी चुनौती दी गई थी। मणिपुर उच्च न्यायालय ने पृथ्वीराज का चुनाव खत्म मान लिया था।
पृथ्वीराज राकांपा के टिकट पर कांग्रेस के प्रत्याशी शरतचंद्र के खिलाफ मोइरांग विधानसभा सीट से 2012 में चुनाव लड़े थे। आरोप है कि अपीलकर्ता ने अपने नामांकन-पत्र में यह गलत जानकारी दी थी कि उसने यूनिवर्सिटी ऑफ मैसूर से एमबीए किया है। बाद में वे कहने लगे कि शैक्षणिक योग्यता में एमबीए लिखने की गलती एक बाबू की वजह से हुई। सुप्रीम कोर्ट ने इसमें साक्ष्य एकदम उलट पाए। सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि जब 2008 में उन्होंने चुनाव लड़ा था, तब भी उन्होंने मैसूर यूनिवर्सिटी से एमबीए होने का जिक्र किया था। ऐसे में जस्टिस राव ने कहा कि यह कैसे माना जा सकता है कि एमबीए का उल्लेख करना एक बाबू की गलती है। मतदाता को गलत सूचना देने के खिलाफ यह फैसला देना विकासशील देशों में लोकतंत्र को और पुख्ता करता है।
समस्त लोकतांत्रिक राजनीतिक सिद्धांतों में इस बात को लेकर बाकायदा सहमति है कि लोकतंत्र में पारदर्शिता के उदाहरण मतदाता के लिए अनिवार्य हैं। नागरिकों को यह अधिकार है कि जिसे वे चुन रहे हैं, उसे क्यों चुन रहे हैं। राजनीति का तथ्यात्मक ज्ञान नागरिकों के लिए अहम पहलू है। पर्याप्त जानकारियों के अभाव में तो वह जज्बा रहेगा और ही किसी तरह का फैसला लेने में कोई हित परिलक्षित हो सकेंगे। जहां तक लोकतांत्रिक सिद्धांतों की बात है तो वे बखूबी समझे जाने चाहिए, ताकि उन्हें स्वीकार कर अर्थपूर्ण तरह से उन्हें लागू किया जा सके। फिर भी अधिकतर मतदाता हमारे देश में अशिक्षित रहते हैं। ऐसे में किस तरह देश में लोकतंत्र आगे बढ़ेगा?
लोकतंत्र के लिए जरूरी है सूचना से परिपूर्ण वोटर, लेकिन सभी जानकारियों से लैस वोटर की बजाय हमारे यहां लोकतंत्र पर ज्यादा जोर दिया जाता है। निरक्षर वोटरों के कारण हमारे देश में लोकतंत्र का स्वरूप बहुतंत्र के रूप में दिखने लगा है। कई वरिष्ठ नागरिकों को प्रत्याशी, चुनाव या राजनीति के बारे में वह जानकारी नहीं होती है। वे किसी भी तरह से अपनी सरकार को काबू में नहीं रख पाते हैं।
इस पूरे तर्क-वितर्क में यह भी कहा जा सकता है कि हमारे वोटर नीतियों और राजनीतिक चयन को लेकर इतने ज्यादा भी पिछड़े हुए नहीं है। उनके पास जो भी जानकारी या मूल्य हैं वे नीतियों और अपने चयन को दुरुस्त करना जानते हैं।
इसके पूर्व 2002 में भारत सरकार बनाम एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कह दिया था कि वोटर को यह मौलिक अधिकार है कि वह चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों के बारे में पूरी जानकारी मांगे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह मतदाता का चयन होगा कि वह किसी ऐसे प्रत्याशी को चुने, जिसके खिलाफ आपराधिक मामले हों या फिर ऐसे मामले को चुने जिसकी शैक्षणिक योग्यता अच्छी हो।
2002 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पश्चात ही जनप्रतिनिधित्व कानून में धारा 33-ए को शामिल किया गया था। एक अध्यादेश के मार्फत इसे सूचना के अतिरिक्त अधिकार में शामिल किया गया था।
2003 में एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट ने ही पीयूसीएल के मामले में एक अध्यादेश को बरकरार रखा था। अदालत के अनुसार मतदाता देश का वह पहला व्यक्ति होता है, जिसे संविधान ने यह अधिकार दिया है कि वह प्रत्याशी के बारे में पूरी सूचना प्राप्त कर सकता है। वैधानिक अधिकर होने के अलावा यह उसका मौलिक अधिकार है।
फैक्ट भारतीयसंविधान के अनुच्छेद 325 और 326 के अनुसार प्रत्येक वयस्क को मताधिकार प्राप्त है। धर्म, जाति, वर्ण,संप्रदाय या लिंग के आधार पर उसे वंचित नहीं रखा जा सकता। (DB)

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