Monday 28 November 2016

जरूरी है इजरायल से दोस्ती (आरपी सिंह)

इजरायली राष्ट्रपति रूवेन रिवलिन की हालिया भारत यात्र दोनों देशों के रिश्तों को नई ऊर्जा देने वाली रही। 1997 में एजर वाइजमैन के भारत आगमन के बाद यह दूसरा अवसर है जब किसी इजरायली राष्ट्रपति ने यहां का दौरा किया हो। पिछले साल राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी इजरायल के दौरे पर गए थे। रिवलिन की भारत यात्र दोनों देशों के औपचारिक कूटनीतिक संबंधों के 25 वर्ष पूरे होने के अवसर पर हुई और यह माना जा रहा है कि इससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगले साल संभावित इजरायल यात्र की राह तैयार हो गई है। इजरायली नेताओं के भारत दौरे के अंतराल यह बताते हैं कि नई दिल्ली का एक सबसे मजबूत रक्षा सहयोगी होने के बावजूद इजरायल की किस तरह अनदेखी की जाती रही है। भारत और इजरायल को नौ महीनों के अंतर में आजादी मिली थी, लेकिन दोनों ने आर्थिक विकास के साथ-साथ विदेशी और घरेलू नीतियों के लिए अलग-अलग राह चुनी। सामरिक नजरिये से दोनों देश स्वाभाविक सहयोगी हैं, लेकिन भारत ने हमेशा से इन जमीनी सच्चाई की अनदेखी की है। इजरायल के संदर्भ में भारत के दृष्टिकोण को दूसरे अन्य कारणों के साथ ही पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पूर्वाग्रह ने भी प्रभावित किया। दूसरे कारणों में भारत का धर्म के आधार पर विभाजन और मुस्लिम देशों के साथ नई दिल्ली के रिश्ते भी शामिल हैं। महात्मा गांधी मानते थे कि यहूदियों का इजरायल पर पहला अधिकार है, लेकिन इसके साथ ही उन्होंने धार्मिक आधार पर इजरायल के गठन का विरोध भी किया।
भारत ने 1947 में फलस्तीन के विभाजन के खिलाफ मतदान किया और 1949 में संयुक्त राष्ट्र में इजरायल के प्रवेश का भी कड़ा विरोध किया। दूसरी ओर ज्यादातर दक्षिणपंथी नेता हमेशा यथार्थवादी इजरायल नीति की वकालत करते रहे और उन्होंने हमेशा इजरायल का स्वागत किया। विनायक दामोदर सावरकर ने भी नैतिक और राजनीतिक, दोनों आधार पर इजरायल के गठन का समर्थन किया था। इतना ही नहीं उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में इजरायल के खिलाफ मतदान करने के लिए नेहरू की निंदा भी की थी। गोलवलकर ने भी यहूदी राष्ट्रवाद की प्रशंसा की और फलस्तीन को यहूदी लोगों का प्राकृतिक हिस्सा माना, जो उनके जीवनयापन के लिए अति आवश्यक था। नेहरू ने ङिाझकते हुए 17 सितंबर, 1950 को इजरायल को आधिकारिक रूप से देश का दर्जा दिया। उन्होंने कहा कि हमने बहुत पहले ही इजरायल को मान्यता दे दी होती, क्योंकि इजरायल एक सच्चाई है। हम इससे दूर रहे, क्योंकि हम नहीं चाहते थे कि अरब देशों में स्थित हमारे मित्रों की भावना आहत हो। 1950 के दशक में इजरायल को मुंबई में वाणिज्य दूतावास खोलने की अनुमति दी गई। हालांकि नेहरू इजरायल के साथ पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित करना नहीं चाहते थे। उनका मानना था कि इजरायल को दिल्ली में दूतावास खोलने की अनुमति देने से भारतीय मुस्लिम नाराज होने के साथ अरब जगत के साथ भी संबंध बिगड़ जाएंगे।1नेहरू-गांधी परिवार के तीन पीढ़ियों यानी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के शासनकाल में भारत-इजरायल के संबंध सदा अनौपचारिक ही रहे। इजरायल के साथ आधिकारिक कूटनीतिक संबंधों का उनका विरोध घरेलू और अंतरराष्ट्रीय, दोनों मोर्चो पर व्याप्त भय को काबू में करने लेकर था। वे नहीं चाहते थे कि इस वजह से मुस्लिम मतदाता और अरब जगत के देश नाराज हो जाएं, जहां बड़े पैमाने पर भारतीय काम कर रहे थे और वे भारत को अपने विदेशी मुद्रा भंडार को नियंत्रित रखने में मदद कर रहे थे और अरब देशों से तेल के प्रवाह को सुरक्षा प्रदान कर रहे थे। भारत की विदेश नीति की प्राथमिकताएं और साङोदारियां भी इजरायल के साथ प्रत्यक्ष संबंधों की राह में बाधा बनीं। इसमें फलस्तीन मुक्त संगठन को भारत का समर्थन, गुटनिरपेक्ष विदेश नीति, शीतयुद्ध के दौरान भारत का सोवियत रूस की ओर झुकाव और अरब के साथ मिलकर पाकिस्तान के प्रभाव को रोकने की मंशा। वह गैर नेहरू-गांधी कांग्रेसी प्रधानमंत्री नरसिंह राव थे जिन्होंने इजरायल के साथ 1992 में पूर्ण राजनयिक संबंधों को स्थापित करने जैसा साहसिक कदम उठाया। भारत की हिचक के विपरीत इजरायल ने भारत के साथ अपने संबंधों को हमेशा महत्व दिया। इजरायली इस बात की प्रशंसा करते हैं कि यहूदी भारत आने वाला पहला विदेशी धर्म था। इजरायली हिंदुओं को अपना स्वाभाविक सहयोगी और दुनिया में एकमात्र दोस्त मानते हैं। इजरायल ने संकट के दिनों हमेशा भारत का साथ दिया। उसने चीन के साथ 62 और पाकिस्तान के साथ 65 और 71 की लड़ाई के दौरान सैन्य मदद प्रदान किया। इजरायल ही वह पहला देश था जिसने 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ जीत के बाद अस्तित्व में आए बांग्लादेश को अलग देश की मान्यता दी। इसके विपरीत करीब-करीब सभी अरब और मुस्लिम देशों ने भारत-पाकिस्तान युद्ध और यहां तक कि कश्मीर पर पाकिस्तान का साथ दिया। 1इजरायल भौगोलिक रूप से भारत से 500 गुना छोटा है। इसकी आबादी दिल्ली की आधी जनसंख्या के बराबर होगी। इजरायल फलस्तीन के उस हिस्से पर बसा है जो बिल्कुल रेगिस्तान है। उसके पास प्राकृतिक संसाधनों का अभाव है, लेकिन इस अभाव ने वहां एक वैज्ञानिक समुदाय को जन्म दिया, जिसने सभी समस्याओं का समाधान प्रौद्योगिकी और नवाचार के जरिये खोज लिया। इससे रेगिस्तान भी खिल उठा। इजरायल ने संचार, साइबर सुरक्षा और बीमारियों के इलाज को लेकर काफी तरक्की की है। वह दुनिया का एक मात्र ऐसा देश है जिसने जल आपूर्ति और संरक्षण को लेकर प्रभावी बुनियादी ढांचा तैयार किया है जो बिना बारिश के भी काम कर सकता है। सौर ऊर्जा के क्षेत्र में उसने उल्लेखनीय काम किया है। रडार, मानव रहित ड्रोन बनाने में भी इजरायल को दक्षता हासिल है। भारत को इस तरीके की प्रौद्योगिकी की सख्त जरूरत है। देश की सुरक्षा व्यवस्था के आधुनिकीकरण के लिए घरेलू रक्षा उद्योग को मजबूत बनाने के साथ इजरायल से चुनिंदा उपकरणों का आयात किया जाना आवश्यक है। चूंकि दोनों देश आतंकवाद के निशाने पर हैं इसलिए दोनों आतंकवाद के खिलाफ खुफिया साङोदारी के साथ सैन्य प्रशिक्षण कार्यक्रम भी साझा करेंगे। दोनों देशों के बीच संभावनाओं को भारत आए इजरायली राष्ट्रपति के शब्दों से समझा जा सकता है। उनका कहना था, हमारे सामने अवसर और चुनौतियां दोनों हैं। हमें साथ मिलकर इनका सामना करना चाहिए। इससे लोकतंत्र और अर्थव्यस्था मजबूत होगी।1(लेखक सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर हैं)(DJ)

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