Monday 28 November 2016

नेहरू और पटेल का संगम थीं इंदिरा गांधी (वेदप्रताप वैदिक )

श्रीमती इंदिरागांधी की जयंती का शताब्दी-वर्ष आज शुरू हो रहा है। केंद्र में कांग्रेस की सरकार नहीं है और बड़े नोटों की भगदड़ मची हुई है। ऐसे बदहवासी के माहौल में इंदिराजी को पता नहीं कितना याद किया जाएगा, लेकिन इसमें शक नहीं है कि वे बेजोड़ प्रधानमंत्री रही हैं। अपने सही कामों के लिए और गलत कामों के लिए भी! दोनों तरह के कामों के लिए उन्हें याद करना इसलिए जरूरी है कि उनके अनुभव वर्तमान और भावी प्रधानमंत्रियों के लिए तो उपयोगी सिद्ध होंगे ही, देश के असली मालिकों यानी आम मतदाताओं के लिए भी लाभप्रद होंगे।
जनवरी 1966 में लालबहादुर शास्त्री के निधन के बाद जब वे प्रधानमंत्री बनीं तो उन्हें 'गूंगी गुड़िया' कहा जाता था। मुझे याद है कि एक पत्रकार-संगठन को संबोधित करते हुए जनवरी की कड़कड़ाती ठंड में उनके चेहरे पर पसीने की बूंदें छलक आई थीं। संसद में ज्यों ही डाॅ. राममनोहर लोहिया और मधु लिमये अपनी सीटों पर जाकर बैठते, प्रधानमंत्री के चेहरे की घबराहट हम दर्शक-दीर्घा से पहचान लेते थे, लेकिन इसी इंदिरा गांधी को विरोधी नेताओं ने 1971 में 'दुर्गा' कहकर संबोधित किया। जरा सोचिए कि इंदिराजी की जगह अगर कोई अन्य प्रधानमंत्री होता तो क्या बांग्लादेश बन सकता था? अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और चीनी नेता माओ त्से तुंग की गीदड़भभकियों के बावजूद इंदिराजी ने बांग्लादेश खड़ा कर दिया। उन्होंने 1971 में पाकिस्तान के तो दो टुकड़े किए ही, उसके दो साल पहले उन्होंने कांग्रेस के भी दो टुकड़े कर दिए थे। तब मैंने कहा था कि देश में दो कांग्रेस हैं- एक कुर्सी कांग्रेस और दूसरी बेकुर्सी कांग्रेस। निजलिंगप्पा और एसके पाटिल की बेकुर्सी कांग्रेस कहां गायब हो गई, पता ही नहीं चला। संजीव रेड्‌डी ताकते रह गए और वीवी गिरि राष्ट्रपति बन गए। जब सिक्किम के छोग्याल ने आंखें तरेरीं तो इंदिराजी ने सिक्किम का भी भारत में विलय कर लिया। भूतपूर्व राजाओं के प्रिवी-पर्स खत्म करने और बैंकों के राष्ट्रीयकरण जैसे कदमों में उन्होंने उल्लेखनीय दृढ़ता दिखाई। वे थीं तो नेहरूजी की बेटी, लेकिन उन्होंने सरदार वल्लभभाई पटेल के गुण भी आत्मसात किए थे।
यदि 1947-48 में नेहरू की जगह इंदिराजी प्रधानमंत्री होतीं तो क्या होता? पहले तो डर के मारे पाकिस्तान कश्मीर को कब्जाने की कोशिश ही नहीं करता और यदि करता तो शायद अपने पंजाब की भी कुछ जमीन खो देता। 1983 में जब पहली बार मैं पाकिस्तान गया तो पाया कि इंदिराजी का नाम जुबान पर आते ही नेताओं और विदेश नीति विशेषज्ञों में बौखलाहट पैदा हो जाती थी। उनके व्यक्तित्व में नेहरू-पटेल का संगम था। सारी दुनिया के विरोध के बावजूद इंदिराजी ने 1974 में पोकरण में परमाणु अंतःस्फोट किया। भारत पर तरह-तरह के प्रतिबंध थोप दिए गए, लेकिन इंदिराजी डिगी नहीं। उन्होंने परमाणु अप्रसार-संधि और समग्र परीक्षण प्रतिबंध संधि पर दस्तखत नहीं किए तो नहीं किए। वही नीति आज भी चल रही है। उस साहसिक कदम को मैंने 'भारतीय सम्प्रभुता का शंखनाद' कहा था। इंदिराजी जो भी काम करतीं, धड़ल्ले से करती थीं। कांग्रेस अध्यक्ष बनते ही उन्होंने केरल की कम्युनिस्ट सरकार को कड़ा सबक सिखा दिया। नंबूदिरीपाद की सरकार के विरुद्ध ज्यों ही असंतोष भड़का, कांग्रेस अध्यक्ष के नाते उन्होंने उसे बर्खास्त करवाने में पूरा जोर लगा दिया। नेहरू का रुख नरम था, लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष के गरम रुख के आगे उन्हें झुकना पड़ा। रुपए के अवमूल्यन और पीएल-480 समझौता करने के कारण उन पर अमेरिका परस्त होने के आरोप लगे। वियतनाम पर उनकी नरमी को भी गुट-निरपेक्षता से भटकना बताया गया, लेकिन उन्होंने पीएन हाक्सर, डीपी धर और शारदा प्रसाद जैसे मेधावी और अनुभवी सलाहकारों की मदद से नेहरू की गुट-निरपेक्षता को नई धार प्रदान की। उन्होंने 1981 में विश्व गुट-निरपेक्ष सम्मेलन आयेाजित किया, जिसमें क्यूबा के फिदेल कास्त्रो ने भी भाग लिया। 1971 में उन्होंने भारत-सोवियत संधि पर दस्तखत किए, लेकिन सोवियत सेनाओं ने अफगानिस्तान पर कब्जा किया तो उन्होंने रूसी नेता लियोनिद ब्रेझनेव को खरी-खरी सुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने अमेरिका के साथ अच्छे संबंध बनाने की भरपूर कोशिश की लेकिन, अमेरिका ने जब भी कोई अनुित कदम उठाया, इंदिराजी चुप नहीं बैठीं। सरदार स्वर्णसिंह-जैसे कुशल विदेश मंत्री को सक्रिय करके वे चीन और पाकिस्तान-जैसे कठिन पड़ोसियों से भी निपटती रहीं। उन पड़ोसियों में दहशत थी कि यदि भारत के खिलाफ वे कोई साजिश करते पाए गए तो उन्हें दिल्ली में बैठी दुर्गा मैया का सामना करना पड़ेगा।
भारत में दर्जन-भर से भी ज्यादा प्रधानमंत्री हो चुके हैं, लेकिन चार प्रधानमंत्रियों को श्रेष्ठ माना जाता है। नेहरू, इंदिरा, नरसिंह राव और अटल बिहारी वाजपेयी। इन चारों में भी इंदिराजी परमप्रतापी हुईं, इसमें शक नहीं, लेकिन जिसका सबसे ज्यादा नाम हुआ, वही सबसे ज्यादा बदनाम भी हुआ। अापातकाल ने इंदिरा गांधी और कांग्रेस का जैसा बंटाढार किया, किसी प्रधानमंत्री का नहीं किया। राजनारायण ने जेल में रहते हुए ही इंदिराजी को बुरी तरह से हरा दिया। इंदिराजी के कुख्यात बेटे संजय गांधी ने भी मुंह की खाई। उत्तर भारत से कांग्रेस का लगभग सफाया हो गया। यह बात ठीक है कि 12 जून 1977 के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के कारण आपातकाल आया। चुनावी धांधली करने का अपराध इंदिरा गांधी पर सिद्ध हुआ। उन्होंने इस्तीफा देने की बजाय अदालतों और संविधान से भी खिलवाड़ किया। हम यह भूलें कि 1971 के चुनाव में 352 सीटें जीतने और बांग्लादेश का निर्माण होने के बाद से ही इंदिराजी के व्यक्तित्व में तानाशाही के बीज अंकुरित होने लगे थे। मुख्यमंत्रियों को आंख झपकते ही बदल दिया जाता था। मंत्री अपने मुंह खोलने से घबराते थे। कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ कहते थे कि 'इंदिरा इज इंडिया', युवराज संजय गांधी की मनमानियों के आगे पार्टी बेहाल थी, सरकारी खरीद में कमीशनबाजी का दौर शुरू हो गया था, सरकारी भ्रष्टाचार को संस्थागत मान्यता मिल गई थी और यही भ्रष्टाचार सोनिया-मनमोहन सिंह सरकार को भी ले बैठा। इंदिराजी को देश जब दुबारा 1980 में ले आया, तब भी उनकी दबंगई कम नहीं हुई। उन्होंने जिन सिख उग्रवादियों को शुरू में शह दी थी, उन्हीं के खिलाफ उन्हें 'ऑपरेशन ब्लू स्टार' करना पड़ा। वह बड़ी हिम्मत का काम था। वही उनकी शहादत का कारण बना। (येलेखक के अपने विचार हैं)
संदर्भ... पूर्वप्रधानमंत्री की जयंती के शताब्दी वर्ष की शुरुआत पर व्यक्तित्व कृतित्व का जायजा
वेदप्रताप वैदिक भारतीयविदेश नीति परिषद के अध्यक्ष(DB)

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