Monday 28 November 2016

भारत जापान : संबंधों में नया अध्याय (अरविंद जयतिलक)

याद होगा दिसंबर, 2015 में जब जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे भारत की यात्र पर आए थे तो कहा था कि दोनों देशों के रिश्तों की कलियां फूलों में बदल गई हैं। और अब भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जापान की यात्र कर संबंधों को सुगंधों से भर दिया है। दोनों देशों के बीच नौ द्विपक्षीय सहयोग संधियों समेत उस असैन्य परमाणु समझौते पर भी मुहर लगी है, जिसका भारत को वर्षो से इंतजार था। असैन्य परमाणु समझौता इसलिए यादा महत्वपूर्ण है कि भारत ऐसा पहला देश है जिसने अभी तक एनपीटी (परमाणु हथियार अप्रसार संधि) पर हस्ताक्षर नहीं किया है। इसके बावजूद भी जापान ने एटमी करार को आकार दिया है। जापान अभी तक इस निर्णय पर कायम था कि जब तक भारत परमाणु हथियार अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर नहीं करेगा तब तक उसके साथ एटमी करार नहीं होगा। इधर भारत भी इस संधि पर हस्ताक्षर के लिए तैयार नहीं था। कारण भारत की नजर में यह संधि भेदभावपूर्ण थी। यहां जानना आवश्यक है कि जब 1998 में भारत ने पोखरण परमाणु परीक्षण को अंजाम दिया तब भारत पर आर्थिक और तकनीकी प्रतिबंध थोपने वाले देशों में जापान भी शामिल था, लेकिन मोदी की कूटनीतिक करामात का नतीजा है कि जापान अपने रुख में परिवर्तन लाया है। वैसे भी अमेरिका जैसे देश भारत के साथ परमाणु करार कर चुके हैं और रूस व ऑस्टेलिया भारत को यूरेनियम की आपूर्ति कर रहे हैं। ऐसे में जापान के लिए एनपीटी शर्तो पर अड़े रहने का अब कोई मतलब नहीं था।
बहरहाल इस करार से अब जापान अपना न्यूक्लियर रिएक्टर्स, हथियार, ईंधन और तकनीकी भारत को बेच सकेगा। अमेरिका स्थित परमाणु संयंत्रों के निर्माताओं के लिए भी भारत में प्लांट लगाने और भारतीय परमाणु बिजलीघरों में निवेश का रास्ता खुल गया है। अछी बात है कि जापान ने भारत की न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप (एनएसजी) में प्रवेश के मसले पर भी समर्थन का वादा किया है। जापान के समर्थन के बाद अब भारत का पक्ष मजबूत होगा और उम्मीद है कि चीन भी विरोध के केंचुल से बाहर निकलने को मजबूर होगा। चीन एनएसजी में भारत के प्रवेश का विरोध कर रहा है। जापान से असैन्य परमाणु संधि होने के बाद अब भारत को भी परमाणु परीक्षणों पर एकतरफा रोक का वादा, जो उसने 2008 में अंतरराष्ट्रीय समुदाय से किया है उसे निभाना होगा। असैन्य परमाणु संधि के अलावा दोनों देशों के बीच अंतरिक्ष, पर्यावरण एवं कृषि क्षेत्र में भी सहयोग के कई अहम समझौते हुए हैं जिससे भारत में जापानी निवेश बढ़ेगा और रेलवे एवं परिवहन क्षेत्र का बुनियादी ढांचा मजबूत होगा। दो समझौते अंतरिक्ष तकनीक के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने के लिए भी हुए हैं जिनमें एक समझौता इसरो और जापानी स्पेस एजेंसी जाक्सा के बीच हुआ है जिससे आउटर स्पेस में सैटेलाइट नेविगेशन एवं खगोलीय खोज में मदद मिलेगी। मेक इन इंडिया और स्किल इंडिया को धार देने के लिए भी दोनों देशों ने हाथ मिलाए हैं।
याद होगा जापानी प्रधानमंत्री की भारत यात्र के दौरान मारुति सुजुकी द्वारा विनिर्मित कारों के आयात के एलान के साथ ही 83 हजार करोड़ रुपये का मेक इन इंडिया कोष स्थापित करने का फैसला किया जा चुका है। जापान के इस शानदार पहल से उत्साहित तब भारत ने भी जापान इंडस्टियल टाउनशिप में निवेश आकर्षित करने के लिए विषेश पैकेज डिजायन करने का वादा किया। भारत द्वारा काले धन के विरुद्ध छेड़े गए वैश्विक अभियान को मुकाम देने के लिए भी जापान पहले ही दोहरा कराधान बचाव संधि (डीटीएए) में संशोधन की हामी भर चुका है जिससे दोनों देशों के बीच बैंकिंग कार्य में सहूलियत, सूचनाओं का आदान-प्रदान और टैक्स जुटाने की राह आसान होगी। ध्यान देना होगा कि साझा विजन डॉक्यूमेंट 2025 के अंतर्गत पहले ही दोनों देश अहम समझौते पर हस्ताक्षर कर चुके हैं। इसके तहत जापान द्वारा भारत के इंफ्रास्ट्रक्चर डेवेलपमेंट के लिए स्पेशल फंड बनाने का वादा किया गया है। भारत-जापान के बीच असैन्य परमाणु करार होने से दक्षिणी चीन सागर में चीन के बढ़ते हस्तक्षेप पर लगाम लगेगा। सच तो यह है कि चीन पर अपनी हद में रहने का दबाव बढ़ गया है।
कहना गलत नहीं होगा कि भारत और जापान के साथ आने से भारत की पूवरेन्मुख नीति को नई धार मिली है। शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद भारत की पूवरेन्मुख नीति इसकी विदेश नीति की महत्वपूर्ण आधार रही है। जापान, मलेशिया, इंडोनेशिया, थाईलैंड, कंबोडिया, लाओस, वियतनाम और फिलीपींस के साथ इसके मजबूत संबंध वैश्विक जगत में सदैव संजीवनी का काम किया है। कहा भी जाता है कि भारत का श्रम और बुद्धि बल तथा जापान की पूंजी और तकनीकी मिलकर दक्षिण एशिया में शांति और समृद्धि का वातावरण निर्मित कर सकती है, लेकिन यह हकीकत है कि चीन कभी नहीं चाहता कि भारत और जापान एक मंच पर आएं और उनके बीच आर्थिक और सामरिक साङोदारी मजबूत हो। सच तो यह है कि परिस्थितियां चीन के प्रतिकूल होती जा रही हैं। आज दक्षिण एशिया के अधिकांश देश मसलन फिलीपींस, लाओस, थाईलैंड और कंबोडिया सभी चीन की विस्तारवादी नीति से खफा हैं। सेनकाकू द्वीप को लेकर जापान और चीन की तनातनी दुनिया के सामने उजागर हो चुकी है। चीन की मंशा इस द्वीप पर अधिकार जमाना है, लेकिन जापान भी झुकने को तैयार नहीं है। इस मसले पर भारत का रुख तटस्थ है। यह आवश्यक भी है। इसलिए कि जापान की तरह चीन भी भारत का एक महत्वपूर्ण साझीदार देश है, लेकिन चीन जिस तरह लगातार भारतीय भू-भाग का अतिक्रमण कर रहा है उससे भारत का जापान के निकट जाना कूटनीतिक जरूरत है। यह सचाई है कि भारत और जापान दोनों हिंद महासागर, प्रशांत महासागर और चीन सागर में चीन की बढ़ती दादागीरी से परेशान हैं। अगर ऐसे में भारत और जापान के बीच निकटता बढ़ती है तो यह स्वाभाविक ही है।
भारत और जापान का 1400 साल पुराना संबंध है। कारोबारी लिहाज से संपूर्ण दक्षिण एशिया में जापान सबसे बड़ा दाता और भारत सर्वाधिक जापानी आधिकारिक विकास सहायता यानी ओडीए प्राप्त करने वाला देश है। वह भारत को 1986 से ही अनुदान देता आ रहा है। जापानी ओडीए भारत के त्वरित आर्थिक विकास प्रयत्नों विशेषकर ऊर्जा, पारगमन, पर्यावरण और मानवीय जरूरतों के जुड़ी परियोजनाओं को सहायता प्रदान करता है। भारत की सभी मेट्रो रेल परियोजनाएं भी जापानी आधिकारिक विकास सहायता की ही घटक हैं। जापान भारत के दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारा में भी भागीदार है। आज की तारीख में भारत में सैकड़ों कंपनियां हैं जो भारत के विकास में सहायक बनी हुई हैं। गौर करना होगा कि जापान अपनी विदेश नीति का पुनर्निरूपण कर रहा है। वह भारत के साथ अपने हित, मूल्य और रणनीति का साम्य देख रहा है, ताकि वह एशिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सके। भारत के साथ असैन्य परमाणु करार को इसी नजरिये से देखा जाना चाहिए।(DJ)

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