Monday 28 November 2016

संविधान दिवस : कानून के समक्ष चुनौती (ज्ञानेन्द्र रावत)

आज हम अपने संविधान की जयंती मना रहे हैं। इस देश के लिए 67 वर्ष का समय यादा बड़ा नहीं, तो कम भी नहीं है। इस दौरान लोकतंत्र को मजबूत और कारगर बनाने के लिए बनी संस्थाओं के लगातार क्षरण से संविधान में उल्लेखित उद्देश्यों-लक्ष्यों को पाने में हम पूरी तरह नाकाम रहे हैं। इस पर हमें गंभीरता से सोचना होगा कि ऐसे में क्या हमारा लोकतंत्र बचा रह पाएगा? बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान के वास्तविक महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा था, ‘संविधान मूलभूत दस्तावेज है। यह राय के तीन अंगों-विधायिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका की स्थिति एवं अधिकारों की व्याख्या करता है। यह नागरिकों के संदर्भ में कार्यपालिका और विधायिका की शक्तियों को भी व्याख्यायित करता है जैसे मूलभूत अधिकारों के अध्याय में हुआ है। वस्तुत: संविधान का प्रयोजन केवल राय के अंगों का निर्माण करना ही नहीं, बल्कि उसके अधिकारों की सीमा का निर्धारण करना भी है। क्योंकि यदि उनके अधिकारों को सीमित नहीं किया गया तो पूर्ण निरंकुश और आततायी व्यवस्था बनेगी।’ कानून के बारे में उन्होंने कहा था, ‘कानून को चाहिए कि वह तथ्यों को, दूसरे शब्दों में सचाई को सुनिश्चित करे। चाहे वह कानून के लिए कितनी भी कड़वी हो। जब सारी औपचारिकताएं निर्वस्त्र हो जाती हैं, तब बेपर्दा सचाई ही सवाल बनकर ग्रहण करती है कि नागरिकों को राय निष्ठा के सुफल पर कौन-सी सियासत काबिज है।’
आज असलियत में जनता स्वतंत्र नहीं है। राजनीतिक विभाजन, सांप्रदायिकता, प्रांतीयता बढ़ी है। प्रांतों के बीच की दूरी तो हिन्दू-मुसलमान के बीच की दूरी से भी यादा बढ़ी है। राष्ट्र विखंडित हो रहा है। आज आजादी के 69 साल बाद भी सर पर मैला ढोया जा रहा है। इस मानवीय और संवैधानिक दायित्व को पूरा करने में लोकतंत्र असफल रहा है। कालेधन पर अंकुश के ढेरों दावे किए जा रहे हैं। इस महीने की गई 500 और 1000 के नोटों की बंदी को कालेधन और भ्रष्टाचार पर अंकुश की सबसे बड़ी पहल बताया जा रहा है। राजनीति में वंशवाद की एक समय सबसे यादा खिलाफत करने वाले ही आज इसके सबसे बड़े रहनुमा हैं। लोकशाही की संस्थाओं का हवास हुआ है। गरीबी को हेय की दृष्टी से देखा जाने लगा है। बेरोजगारी और शोषण बढ़ा है। संसद और विधान सभाओं की भूमिका घट चुकी है। सवरेच न्यायालय की भूमिका जरूर प्रभावी और सशक्त हुई है। वहीं उसका महत्व भी बढ़ा है। व्यवस्था पर औपनिवेशक छाप अभी भी कायम है। दावे कुछ भी किए जाएं, असल में देश में भ्रष्टाचार का साम्राय है। अब तो सांसद संसद में सवाल पूछने के नाम पर रिश्वत और सांसद निधि से कमीशन लेने में भी पीछे नहीं हैं। जनता का जन प्रतिनिधियों से विश्वास खत्म होता जा रहा है। राजनेताओं के आचरण से जनता असमंजस में है कि वह किसे चुने। स्वार्थ की खातिर रायों को बांटा जा रहा है।
देश में शासक और जनता के बीच का तनाव सीमा से बाहर जाता दिख रहा है। राजनीतिक दलों में लोकतंत्र समाप्त हो गया है। वहां एक व्यक्ति का राज है। लोकहित याचिकाओं पर न्यायपालिका ने जरूर महत्वपूर्ण फैसले दिए हैं। भ्रष्टाचार के प्रति वात्सल्य भाव पनपने की इस खतरनाक प्रवृत्ति पर अंकुश नहीं लगा तो लोकतांत्रिक संस्थाओं का नाम मिट जाएगा। उस दशा में गैर लोकतांत्रिक ताकतें अपने पैर जमाने लगेंगी। राजनेताओं के प्रति बढ़ता अविश्वास लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा है। लोकतंत्र तो तभी अपना उद्देश्य पूरा कर पाएगा, जब भागीदारी और पारदर्शिता बढ़े। आज आदर्श क्या होते हैं, यह किसी को पता नहीं है। जातिगत अहमन्यता के चलते संविधान में उल्लेखित सामाजिक समता का सिद्धांत मात्र एक इबारत बनकर रह गया है। शोषण की संस्कृति के विकसित होने का परिणाम कभी हिन्दू-मुस्लिम, कभी मंदिर बनाम मस्जिद, कभी हिन्दू-ईसाई, कभी दलित-पिछड़े तो कभी सवर्ण और अस्पृश्य के संघर्ष के रूप में सामने आया। नतीजतन आदमी एक-दूसरे के खून का प्यासा हो गया और क्षणिक सत्ता सुख की खातिर खून की नदियां बहाने को वह धर्म समझने लगा। आज भी इस प्रवृत्ति को एक धर्म व संगठन विशेष के ठेकेदार बढ़ाने में लगे हुए हैं। ये वजहें हैं जिनके चलते संविधान की हिफाजत की कोई गारंटी नहीं है। हर नागरिक को सेहतमंद रहने और इससे सबंधित सुविधाएं पाने का हक है। राय का कर्तव्य है कि वह हर व्यक्ति को यह सुविधा उपलब्ध कराए। लेकिन भारत जैसे विकासशील देश में असामनता की वजह से लोगों को यह सुविधाएं मिल नहीं पातीं। जब तक लोकतांत्रिक समाज में समता के मूल्य का प्रतिपादन नहीं होगा, तब तक समाज की स्वतंत्रता के अक्षुण्ण रहने की कल्पना नहीं की जा सकती। इन हालात में सामाजिक न्याय व समता की आशा करना बेमानी है।
इसके लिए संविधान को दोष देना उचित नहीं है। असल में यह चरित्र से जुड़ा है। चरित्र संविधान का नहीं, समाज का विषय है। एक स्वतंत्र सबल और संप्रभु राष्ट्र का निर्माण संविधान से नहीं, उसके नागरिकों के चरित्र से ही संभव है। जब देश के नागरिक असंख्य बलिदानों के उपरांत मिली स्वतंत्रता, अपने संस्कार-संस्कृति का सम्मान नहीं कर सकते, भ्रष्टाचार और राष्ट्र विरोधी अराजक कार्यो में संलिप्त हों, उस स्थिति में संविधान से क्या अपेक्षा की जा सकती है। जनता में स्वतंत्रता का भाव यथावत रहे, इसका दायित्व समाज का है। स्वतंत्रता का संबंध तो व्यक्ति के दिल से होता है। यदि वह खत्म हो गया, तो उसे न तो कोई कानून, न न्यायालय और न कोई संविधान बनाए रख सकता है। कानून की अपनी सीमाएं होती हैं। भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में वह और विकराल रूप ले लेती हैं। यदि हम आजादी मिलते वक्त संजोये सपनों को पूरा करने में एक राष्ट्र के रूप में विफल हुए हैं, तो इसका दोष संविधान पर नहीं डाला जा सकता। न ही संविधान को बदल कर एक नया संविधान रच देने से कुछ खास बदलाव होने वाला है। संविधान की सफलता का पूरा दारोमदार उसके नागरिकों पर निर्भर करता है। जरूरत है आज हमें स्वयं बदलने की और चारित्रिक दृष्टि से सुदृढ़ व नैतिक मूल्यांे से ओत-प्रोत राष्ट्र हित को सवरेपरि मानने वाले नागरिकों की। यदि देश आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से सुदृढ़ हो तो कोई भी ताकत पनप ही नहीं सकती। आंतकवाद को भी तभी बढ़ावा मिलता है जब हमारे भीतर कमजोर तत्व बैठ जाते हैं। केवल सत्ता हासिल करने से कुछ नहीं होगा। देश की एकता और लोकतांत्रिक समाज बनाने के लिए देश के प्रति प्रेम, निष्ठा और ईमानदारी का होना बेहद जरूरी है। सच यह है कि आने वाले वर्षो में भी नए बदलाव की उम्मीद दिखाई नहीं देती।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)(DJ)

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