Monday 28 November 2016

पाकिस्तान बनता बांग्लादेश (कृपाशंकर चौबे)

बांग्लादेश में हाल में दस दिनों के भीतर अल्पसंख्यक हिंदुओं पर जिस तरह से दो हमले हुए वह वहां लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों पर हमले दरअसल उस देश के लोकतंत्र पर ही सवाल है। पहले बांग्लादेश के ब्राrाण बेड़िया जिले में हिंदुओं के कम से कम दस मंदिरों और सैकड़ों घरों को ध्वस्त कर दिया गया और उसके हफ्ताभर बीतते-बीतते उपजिला के मध्यमपाड़ा और दक्षिणपाड़ा में हिंदुओं के कई घरों में आग लगा दी गई। इसी वर्ष जून महीने में बांग्लादेश में चार हिंदुओं की हत्या कर दी गई थी, जिसमें से दो लोग मंदिरों के रखरखाव से जुड़े थे। इस समय बांग्लादेश में कहीं हिंदू तो कहीं बौद्ध भिक्षु निशाना बन रहे हैं तो कहीं ईसाई समुदाय के लोग। बांग्लादेश में इस समय के हालात 1992 के हालात की याद को ताजा कर रहे हैं। अयोध्या में विवादित ढांचे के ध्वंस को आधार बनाते हुए 1992 में बांग्लादेश में हिंदुओं के 28 हजार रिहायशी मकानों, 22 सौ वाणिज्यिक उद्यमों और 36 सौ मंदिरों को क्षतिग्रस्त किया गया था। तब बारह हिंदू मारे गए, दो हजार घायल किए गए और दो हजार महिलाओं व युवतियों के साथ ज्यादती हुई थी।
बांग्लादेश के हिंदू व बौद्धों की सबसे अधिक आबादी दौचंगा, मेहरपुर, जेसोर और ङोनाइडाह जिलों में है और उन पर हमले भी वहीं होते रहे हैं। हमलों से बचने के लिए ही बांग्लादेश के अल्पसंख्यक वहां से पलायन करते रहे हैं। बांग्लादेश की आजादी के बाद से ही हिंदुओं का विस्थापन आरंभ हुआ। कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों के अत्याचार से तंग आकर 1974 से 1991 के बीच रोज औसतन 475 लोग यानी हर साल एक लाख 73 हजार 375 हिंदू हमेशा के लिए बांग्लादेश छोड़ने को बाध्य हुए। यदि उनका पलायन नहीं हुआ होता तो आज बांग्लादेश में हिंदू नागरिकों की आबादी सवा तीन करोड़ होती। 1947 में पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) में हिंदुओं की आबादी 28 प्रतिशत थी, जो 1951 में 22 प्रतिशत, 1961 में 18.5 प्रतिशत, 1974 में 13.5 प्रतिशत, 1981 में 12.13 प्रतिशत, 1991 में 11.6 प्रतिशत और आज घटकर 8.2 प्रतिशत हो गई है। बांग्लादेश की करीब 16 करोड़ आबादी में से अल्पसंख्यकों की तादाद सवा करोड़ है, जो फिलहाल खौफ में जीने को विवश हैं। हमलों से बचने के लिए बांग्लादेशी हिंदू भागकर बंगाल, त्रिपुरा और असम में आश्रय लेते रहे हैं। विडंबना यह है कि बांग्लादेश में हिंदू सुरक्षित नहीं हैं और भारत आने पर उन्हें रिफ्यूजी या घुसपैठिया कहा जाता है। बांग्लादेश के जो हिंदू भारत आ गए वे कभी नहीं लौटे। बांग्लादेश के हिंदू शरणार्थी भी बंगाल और अन्यत्र आकर सम्मानपूर्वक रह लेते हैं। दिहाड़ी मजदूरी करते हैं, फेरी लगाते हैं, रिक्शा खींचते हैं और तरह-तरह के काम कर पैसा कमाकर जीवन काटते हैं, किंतु उस पार लौटने की सपने में भी नहीं सोचते।
बांग्लादेश से अल्पसंख्यकों, खासकर हंिदूुओं के पलायन के मूलत: पांच कारण हैं। ये हैं-सांप्रदायिक उत्पीड़न, सांप्रदायिक हमले, शत्रु अर्पित संपत्ति कानून, देवोत्तर संपत्ति पर कब्जा और सरकारी नौकरियों में हंिदूुओं की उपेक्षा एवं भेदभाव। बांग्लादेश में शत्रु अर्पित संपत्ति कानून और देवोत्तर संपत्ति पर कब्जे ने अल्पसंख्यकों को कहीं का नहीं छोड़ा है। इसके अलावा उस पार हिंदुओं को भारत का समर्थक अथवा एजेंट अथवा काफिर कहकर गाली दी जाती है। इसे बांग्लादेश से हिंदुओं को भगाने के इस्लामी जिहाद के रूप में भी देखा जा सकता है। जिस तरह वहां के इस्लामी कट्टरपंथी हिंदुओं और बौद्धों पर आक्रमण कर रहे हैं उसका एकमात्र मकसद देश को अल्पसंख्यकों से पूरी तरह खाली करा लेना है। सवाल है कि कट्टरपंथी क्या बांग्लादेश को एक दूसरा पाकिस्तान बनाना चाहते हैं? बांग्लादेश एक लोकतांत्रिक देश है और इसीलिए पाकिस्तान के कई शुभ बुद्धि संपन्न बुद्धिजीवी तक मानते हैं कि बांग्लादेश लोकतंत्र के मामले में पाकिस्तान से बेहतर है। पाकिस्तान इस मामले में बड़ा अभागा देश है कि वहां एक समूची पीढ़ी सैनिक शासन में पली और बड़ी हुई। लोकतंत्र के कमजोर होने के कारण ही पाकिस्तान में तालिबानी ताकतें फल-फूल रही हैं। वहां लोकतंत्र लगभग बंदूक की नोक पर चल रहा है। 1बांग्लादेश को आज यदि पाकिस्तान से बेहतर माना जा रहा है तो इसलिए कि किसी भी देश की प्रतिष्ठा इसी से बनती है कि अल्पसंख्यकों के प्रति वहां कैसा व्यवहार होता है। आज सबसे बड़ी चिंता दुनिया में हर जगह बहुसंख्यक द्वारा अल्पसंख्यक का सांप्रदायिक उत्पीड़न है। इसीलिए पूरी दुनिया में संवेदनशील लोग अल्पसंख्यकों के पक्ष में खड़े होते हैं। बांग्लादेश के संदर्भ में भी यही सही है। इसलिए मजूबत लोकतांत्रिक देश के रूप में बनना या बिगड़ना, दोनों चीजें बांग्लादेश के हाथ में हैं। यदि बनना है और पाकिस्तान से बेहतर छवि बनाए रखनी है तो अल्पसंख्यकों पर जुल्म रोकने के लिए उसे कठोर कदम उठाने होंगे। अल्पसंख्यकों पर हमले जारी रहने से बांग्लादेश की अंतरराष्ट्रीय छवि धूमिल होती है। इसलिए बांग्लादेश यदि अल्पसंख्यकों पर हमले नहीं रोकता तो वह अपनी गरिमा और आभा खो देगा। बांग्लादेश में यदि अल्पसंख्यकों के भीतर बैठा भय दूर नहीं किया जाता तो वह उस देश में लोकतंत्र के कमजोर पड़ने का प्रमाण होगा और जब तक वहां लोकतंत्र मजबूत नहीं होगा तो अग्रगामी व प्रगतिशील ताकतें भी मजबूत नहीं होंगी। इसलिए अल्पसंख्यकों पर हमले करने वालों को कुचलने के लिए बांग्लादेश सरकार को तेजी से सक्रिय होना होगा। वहां धर्मनिरपेक्षता के पैरोकार अब और अधिक खामोश न रहें। प्रधानमंत्री शेख हसीना को अल्पसंख्यकों की रक्षा सुनिश्चित करने का ठोस रास्ता निकालना होगा। शेख हसीना यदि बांग्लादेश को कट्टरता के दौर से बाहर नहीं निकाल पातीं तो उनके शासनकाल की यह एक बड़ी विफलता मानी जाएगी।
(लेखक महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय के कोलकाता केंद्र के प्रभारी हैं)(DJ)\

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