Monday 28 November 2016

ट्रंप की जीत के बाद अमेरिका का उलझा गणित (डब्ल्यू पी एस सिद्धू, प्रोफेसर, न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी)


डोनाल्ड ट्रंप को मिली अप्रत्याशित चुनावी सफलता के करीब दो हफ्ते बाद भी अमेरिकी सियासत की सूनामी थमती नहीं दिख रही है। ‘प्रेसिडेंट इलेक्ट’ की कथित नीतियों व प्रत्याशित कार्रवाई को लेकर देश-दुनिया अब भी चिंतित है। आलम यह है कि चुनावी नतीजों के खिलाफ अमेरिका के कई प्रमुख शहरों में विरोध-प्रदर्शन हो रहे है। यूरोपीय संघ के विदेश मंत्री आपात बैठक करके ट्रंप की जीत पर विचार कर रहे हैं। जापानी प्रधानमंत्री शिंजो अबे अपनी हताश छिपाने में जुटे हैं। यानी चुनाव अभियान के दौरान ट्रंप की कही गई सभी बातें बतौर राष्ट्रपति उनकी प्राथमिक नीतियों के तौर पर देखी जा रही हैं।
ट्रंप की नीतिगत घोषणाओं को लेकर उलझन व अनिश्चितता गलत नहीं है। इसे ट्रंप की बातों से भी समझा जा सकता है। अमेरिकी इजराइल पब्लिक अफेयर्स कमेटी के सामने ईरान परमाणु समझौता पर बोलते हुए बतौर उम्मदीवार ट्रंप ने दावा किया था कि उनकी ‘सर्वोच्च प्राथमिकता’ ईरान के साथ विनाशकारी समझौता रद्द करना होगी। मगर उसी भाषण के दौरान उन्होंने समझौते को लेकर ईरान को जवाबेदह बनाते हुए कहा, ‘पहले से लागू कोई ऐसा समझौता आपने नहीं देखा होगा।’ हाल ही में अमेरिकी अखबार द न्यूयॉर्क टाइम्स ने भी उन पर चुटकी लेते हुए लिखा है कि ट्रंप के पास ‘एक ही समय में दो विपरीत विचारों का समर्थन करने’ की क्षमता है।
हालांकि ट्रंप यदि चुनावी अभियानों में सुसंगत नीतियां पेश भी करते, तो आज उन्हें लागू करना उनके लिए आसान नहीं होता। मुश्किलें कई हैं। पहली मुश्किल खंडित जनादेश की है। बेशक साल 1928 के बाद पहली बार रिपब्लिकन पार्टी और उसके उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप का ह्वाइट हाउस, हाउस ऑफ रिप्रेजेन्टेटिव्स (निचला सदन) और सीनेट (ऊपरी सदन) पर नियंत्रण हुआ है, मगर सही मायने में पार्टी और उम्मीदवार, दोनों को मतों का काफी नुकसान पहुंचा है। राष्ट्रपति चुनाव में हिलेरी क्लिंटन को ट्रंप की तुलना में दस लाख से अधिक मत मिले हैं; अंतर ज्यादा भी हो सकता है, क्योंकि मतों की गिनती जारी है। दोनों उम्मीदवारों के बीच वोटों का यह अंतर जॉन एफ केनेडी और रिचर्ड निक्सन की जीत के अंतर से भी ज्यादा है। स्पष्ट है कि मतदाताओं के बड़े वर्ग में लोकप्रिय न होना ट्रंप को मनोनुकूल फैसले करने से रोक सकता है।
अगर उनके पास मजबूत व स्पष्ट जनादेश होता, तब भी यह जरूरी नहीं है कि चुनावी अभियानों में किए गए सभी वादे पूरे हों। उदाहरण बराक ओबामा हैं। उन्होंने चुनाव जीतने के बाद ग्वांतानामो बे जेल को बंद करने की अपनी दिली-इच्छा जाहिर की थी, पर अपने पूरे कार्यकाल में वह ऐसा न कर सकें। इसी तरह, उन्होंने दुनिया को परमाणु हथियारों से मुक्त करने के लिए प्रभावी कदम उठाने की बात भी कही, मगर विडंबना है कि उनके कार्यकाल में परमाणु हथियारों को अत्याधुनिक बनाने के लिए अब तक का सर्वाधिक बजट आवंटित किया गया। जाहिर है, ट्रंप के तमाम चुनावी वायदे भी इसी तरह राजनेताओं और नौकरशाहों की नजरों से गुजरेंगे। जैसे कि अगर वह ईरान के साथ परमाणु समझौता खत्म करने का फैसला लेते हैं, तो उन्हें जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन जैसे देशों के खिलाफ भी कदम उठाना होगा, क्योंकि इन तमाम मुल्कों के हित अब ईरान से जुड़ते जा रहे हैं।
पार्टीगत विरोध भी एक बड़ी मुश्किल है। ट्रंप को कुछ मसलों पर अपनी ही पार्टी का विरोध झेलना पड़ सकता है। जैसे कि एरिजोन से फिर से निर्वाचित सीनेटर जॉन मैक्कन ने चेतावनी दी है कि रूस से मेल-मिलाप की ट्रंप की मंशा ‘कतई स्वीकार’ नहीं की जा सकती। इसी तरह, टेनेसी के सीनेटर बॉब कॉर्कर अमेरिका में मुस्लिमों के आने पर रोक से जुड़े ट्रंप के बयानों को खारिज कर चुके हैं। नॉर्थ कैरोलिना के सीनेटर रिचर्ड बर भी यह कह चुके हैं कि क्यों कांग्रेस (संसद) में रिपब्लिकन को ट्रंप की तमाम नीतियों का समर्थन नहीं करना चाहिए।
इसका यह अर्थ नहीं है कि नए राष्ट्रपति की कोई भी योजना साकार न हो सकेगी। मगर यह सब इस बात पर निर्भर करेगा कि ह्वाइट हाउस कितनी सहमति बना पाता है। वैसे उम्मीद यही है कि ट्रंप की अतिशय नीतियां शायद ही साकार होंगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)(Hindustan)

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