Monday 28 November 2016

भारत की खोज थी मजबूत लोकतंत्र की नींव (उदय प्रकाश)

देश केपहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की 127वीं जयंती के मौके पर उनके योगदान की चर्चा मैं दो-तीन चीजों के संदर्भ में करना चाहूंगा। एक तो दक्षिणपंथ का वैश्वीकरण है। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प की जीत, तुर्की की घटनाएं, ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से बाहर आना और अपने देश में गत ढाई साल की घटनाएं। कुछ लोग इसे अतिवादी दक्षिण पंथी अथवा अग्ली यानी डरावना दक्षिणपंथ भी कह रहे हैं। इस पृष्ठ भूमि में नेहरू को याद करना, उनके योगदान को देखना महत्वपूर्ण है।
दूसरी बात जो एक लेखक के नाते मुझे बहुत महत्वपूर्ण लगती है वह यह है कि किसी भी रचनात्मकता के लिए इतिहास से ज्यादा महत्वपूर्ण होती है स्मृति। दूसरों के लिए जो इतिहास है वह रचनाकार के लिए स्मृति है। जिसे भविष्य कहते हैं वह रचनाकार के लिए सपना है। मेरा मानना है कि टेक्नोलॉजी के स्तर पर जो बदलाव हुआ है स्मृति लगभग 'फिक्स' में चली गई है- वह गूगल में हैं, इंटरनेट में है। यह सिर्फ स्मृतियों के शिफ्ट होने की ही बात नहीं है। जब स्मृति शिफ्ट होती है तो इतिहास से भी छेड़छाड़ शुरू हो जाती है। अगर नेहरूजी के बारे में गूगल में सर्च करें तो इतनी भयानक झूठी जानकारियां भरी पड़ी हैं कि डर लगता है कि उनके सारे योगदान को खारिज करने का प्रयास है, जो कि बहुत बड़ा योगदान है, क्योंकि वे वर्ल्ड लीडर थे। जो नेहरू के बारे में यह सब कर रहे हैं, उनकी इतिहास में कोई भूमिका नहीं है। ये व्यापारी किस्म के स्मृतिहीन लोग हैं। उक्त संदर्भों में नेहरू को देखें तो उन्होंने कम उम्र में, मेरा ख्याल है 26-27 साल के रहे होंगे जब बकायदा आंदोलनों में भाग लेना शुरू किया। उनके नौ-दस साल जेल में गुजरे। डिस्कवरी ऑफ इंडिया उन्होंने जेल में रहते हुए लिखी। इसे पढ़ते हुए लगता है कि नेहरू बहुत बड़ी चिंता से गुजर रहे थे। उन्हें भारत की बहुलता, विविधता के लिए खतरा दिख रहा था। उन्हें चिंता थी कि इसे आगे जाकर कहीं खत्म कर दिया जाए। भारत की खोज एक तरह से इतिहास की पुनर्व्याखा है। अशोक और अकबर को जनस्मृति में लाना, बुद्ध को स्थापित करना। यह जो सर्वसमावेशी, उदारवादी परम्परा रही है, उसे स्थापित करना। नेहरू ने शायद तय कर लिया था कि भारत धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक देश रहेगा और इसे हिंदू पाकिस्तान बनने नहीं दिया जाएगा।
बंटवारे की खून-खराबे वाली परिस्थितियों में यह बहुत बड़ा फैसला था। उन्होंने यह सबकुछ इतने सहज तरीके से किया कि अपने-अाप उसकी छाप पड़ती गई। जैसे मैला आंचल, परती परीकथा, दुखमोचन जैसे शुरू में लिखे कई उपन्यास गांवों में पहली पंचवर्षीय योजना की झलक देते थे। गांवों में डॉक्टरों, सामुदायिक योजनाओं, पशुचिकित्सकों और ग्राम सेवकों का आना। यानी हमारी कृषि अर्थव्यवस्था उनकी अांखों से ओझल नहीं थी, लेकिन वे देश को आधुनिक भी बनाना चाहते थे, इसलिए उद्योगों की ओर ध्यान था। आधुनिकता के साथ कृषि आधारित अर्थव्यवस्था। कुल-मिलाकर नेहरू की दृष्टि संतुलित डायकोटॉमी रही है। वे दोनों तरफ देख रहे थे। बड़े उद्योगों के साथ सामुदायिक विकास परियोजना। उनका विज़न स्पष्ट था, कोई कन्फ्यूजन नहीं था। मिश्रित अर्थव्यवस्था- निजी क्षेत्र भी हो, सार्वजनिक क्षेत्र भी हो। उस दौर विश्व में शीत दुनिया दो खेमों में बंटी हुई थी, तो उन्होंने गुटनिरपेक्ष आंदोलन का चुनाव किया। मार्शल टीटो, नासेर और सुकर्णो के साथ मिलकर गुटनिरपेक्ष आंदोलन की नींव रखी, जो शीतयुद्ध की समाप्ति से पहले तक दुनिया में काफी प्रभावी रहा। आरोप है कि वे गांधी के सही शिष्य नहीं थे, लेकिन पंचशील पूरा शांतिपूर्ण सहअस्तित्व पर आधारित था। अंतरराष्ट्रीय मामलों में शांति के लिए इससे बड़ा योगदान नहीं है। नेहरू ने उसे अपनी कूटनीति या विदेश नीति का हिस्सा बनाया। यह सही है कि इतिहास में बड़ी विडम्बनाएं हुआ करती हैं तो जो भरोसा उन्होंने चीन पर किया था, वह 1962 में टूटा तो उनके लिए बहुत भयावह था। उन्हें लगे सदमें में ही वे चल बसे।
लेखक, कवि और राजनीति विज्ञानी मानश 'फिराक' ने लिखा है चीन के पहले सम्राट शी हुआंग पी ने विशाल दीवार बनवाई, क्योंकि उसे डर लगता था कि बाहर से हमला हो जाए। फिर उसने अपने समय से पहले की सारी किताबें जला देने का हुक्म दिया। जितने विद्वान थे, उन्हें चुन-ुनकर मरवाया। वही नहीं, हर तानाशाह इतिहास और विचार से डरता है। जो इतिहास से डरता है, वह भविष्य से भी डरेगा। मानश कहते हैं कि थिंकिंग इज सीक्रेट एनिमी ऑफ पावर। सोचते हुए लोगों से सत्ता भयभीत रहती है, इसलिए विचारों को नहीं चलने देती है। नेहरू के साथ ऐसा कभी नहीं था। इतिहास उन्हें प्रेरणा देता था। वे वैचारिकता को बढ़ावा देते थे। उन्होंने सेना को कभी ऐसी प्रमुखता नहीं दी कि वह पूरे राष्ट्र को परिभाषित करने लगे। संस्कृति को परिभाषित करने लगे। उन्होंने ऐसा लोकतंत्र गढ़ा, जिसमें बहुलता को जगह हो। पूंजीवादी लोकतंत्र की ताकत यह होती है कि आलोचनाओं को भीतर समािहत करता है। उसी के घर्षण से वह आगे बढ़ता है, लोकतांत्रिक होता जाता है।
1952 में नेहरू के नेतृत्व में देश के पहले आम चुनाव में स्वस्थ लोकतंत्र की नींव रखी गई थी। दो अन्य आम चुनाव 1957 और 1962 में पूरी शक्ति लगाकर उन्होंने इसे सिर्फ और मजबूत बनाया बल्कि विपक्ष को भी पूरा सम्मान दिया। जैसे अपनी पार्टी के विरोध के बावजूद 1963 में सरकार के खिलाफ विपक्ष की अोर से लाए गए पहले अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा कराना मंजूर किया। जितना समय वे संसद की बहसों में दिया करते थे, उस रिकॉर्ड को अभी तक कोई प्रधानमंत्री नहीं तोड़ पाया है। वे कहते थे- 'लोकतंत्र में प्रेस चाहे जितना गैर-जिम्मेदार हो जाए मैं उस पर अंकुश लगाए जाने का समर्थन नहीं कर सकता'। उन्होंने स्वतंत्रता बाद के बहुत नाजुक वर्षों में देश को अखंड रखने में असाधारण योगदान दिया। वे अकेले नहीं थे, लेकिन भारतीय संविधान के निर्माण में उनके दिल से दिए योगदान के बिना हम इतने समृद्ध गणराज्य नहीं होते। छुआछूत विरोध, अल्पसंख्यकों के अधिकार और राजा-रजवाड़ों की रियायतें खत्म करने पर उन्होंने जोर दिया। 1950 में हमारा नवजात गणतंत्र परिपक्व लोकतंत्र दिखता था तो यह नेहरू की देन थी। स्वतंत्रता बाद के तनावों अनिश्चितताओं में इन पर समझौता करना बहुत आसान होता, लेकिन वे दृढ़ता से इन मूल्यों पर जमे रहे। (जैसाउन्होंने आनंद देशमुख को बताया।)
उदय प्रकाश
कवि,लेखक और फिल्मकार

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