Monday 28 November 2016

न्यायपालिका में नियुक्तियां : पारदर्शिता की जरूरत (निरंजन स्वरूप)

हाल में ही केंद्र सरकार और न्यायपालिका के बीच देशभर के विभिन्न उच न्यायालयों एवं उचतम न्यायालय में न्यायाधीशों की कमी को दूर करने के लिए मध्य मार्ग अपनाने पर सहमति बनी। इसके अनुसार संविधान के अनुछेद 224 ए के तहत उच न्यायालयों एवं उचतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को पुन: एक नियत अवधि के लिए सेवा में रखा जाएगा। लेकिन सबसे पहले यह समझना होगा कि ऐसी स्थिति क्यों आई। इसके बाद ही उसका निराकरण करना संभव हो पाएगा। भारत के संविधान द्वारा न्यायपालिका को अन्य अधिकारों के साथ साथ यह अधिकार भी दिया गया है कि वह कार्यपालिका एवं विधायिका को कानून और संविधान का उल्लंघन एवं नागरिकों के मूल अधिकारों का हनन करने से रोके। देश का उचतम न्यायालय ही संविधान का अंतिम निर्णयकर्ता है। इसके अंतर्गत 1973 में केशवानंद भारती केस में उचतम न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय में यह आदेश दिया कि कोई भी संविधान संशोधन ऐसा नहीं हो सकता, जिससे उसकी मूल भावना प्रभावित हो। इसी भावना के अंतर्गत भारतीय संविधान में न्यायपालिका एवं कार्यपालिका की परस्पर स्वतंत्रता को संविधान का मूल आधार माना गया है।
विभिन्न अवसरों पर उचतम न्यायालय द्वारा अपने आदेशों में यह दर्शाया भी गया है। यही वजह थी कि वर्ष 1993 में उचतम न्यायालय द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति करने का कार्य भी अपने हाथ में ले लिया गया था। तब से 3 या 5 वरिष्टतम न्यायाधीशों का एक कोलेजियम ही विभिन्न उच न्यायालयों एवं उचतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति में प्रमुख भूमिका निभाता है। यह कोलेजियम जिस व्यक्ति को न्यायाधीश बनाना है उसका नाम सरकार के पास अंतिम रूप से अनुमोदन के लिए भेजता है और सरकार (राष्ट्रपति) द्वारा उस व्यक्ति को संबंधित न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया से काफी हद तक सरकार का न्यायाधीशों की नियुक्ति में हस्तक्षेप कम तो हुआ। लेकिन जैसी संविधान की मंशा है, वैसा परिणाम सामने नहीं आया। इस प्रक्रिया से भी न्यायपालिका की पूर्ण स्वतंत्रता सुनिश्चित होने में बाधा उत्पन्न हुई क्योंकि कार्यपालिका द्वारा न्यायाधीशों को विदेश यात्र की अनुमति एवं सेवानिवृत्ति के उपरांत कई प्रकार के ईनाम देने की प्रवृत्ति जैसे कमीशन, टिब्यूनल अथवा प्रदेश के रायपाल का पद देने की परिपाटी ने एक अजीब स्थिति पैदा कर दी और इससे पारदर्शिता प्रभावित दिखी। इससे न्यायपालिका की संपूर्ण स्वतंत्रता की संविधान की अवधारणा पूरी नहीं हो सकी। कोलेजियम द्वारा भी न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया में अत्यंत गोपनीयता बरतने के कारण उस पर न्यायाधीशों की नियुक्तियों में भाई भतीजावाद एवं उनकी योग्यता को लेकर समय समय पर उंगली उठती रही है। यहां तक कहा जाता रहा है कि न्यायाधीश बनने के लिए कोलेजियम के सदस्यों को जानना और उनसे नजदीकी होना पर्याप्त है। अगर देखा जाए तो कोलेजियम पर इस प्रकार के आरोप निराधार नहीं हैं।
इसी बीच, न्यायालय एवं न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया पर अपना नियंत्रण कायम करने के उद्देश्य से सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाया गया। इस आयोग में छह सदस्यों का एक पैनल जिसमें तीन उचतम न्यायायलय के वरिष्ठ न्यायाधीश, केंद्रीय कानून मंत्री, प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्षि एवं देश के मुख्य न्यायाधीश द्वारा नियुक्त किए जाने का प्रावधान था। लेकिन उचतम न्यायालय ने सरकार के इस कानून को निरस्त कर दिया। क्योंकि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के सदस्यों में सरकार का काफी हद तक हस्तक्षेप था, जैसा कि इसके प्रारूप से स्वत: स्पष्ट है। इस प्रकार यह न्यायपालिका की स्वतंत्र और संविधान की मूल भावना पर कठोर आघात था। तब से आज तक सरकार और न्यायपालिका के बीच न्यायधीशों की नियुक्ति को लेकर सहमति न बन पाने के कारण लगभग एक वर्ष से अधिक हो जाने पर भी विभिन्न उच न्यायालयों एवं उचतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया रुकी हुई है। इस वजह से ही संविधान के अनुछेद 224 ए के अंतर्गत उच न्यायालयों एवं उचतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को एक नियत अवधि के लिए सेवा में पुन: रखने पर सरकार एवं न्यायपालिका दोनों के बीच सहमति बनी है। देश के विभिन्न उच न्यायालयों एवं उचतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक ऐसे पूर्ण कालिक आयोग की जरूरत है जिस पर सरकार का नियंत्रण न हो। इस संबंध में ब्रिटेन में वहां की सरकार ने 2006 में न्यायधीशों की नियुक्ति को पूर्ण रूप से सरकार के हस्तक्षेप से मुक्त करके एक स्वतंत्र स्थाई आयोग बनाया जिसे न्यायायिक नियुक्ति आयोग कहा जाता है। भारत सरकार को भी इस मॉडल पर विचार करना चाहिए। अपने देश में भी ऐसे स्थाई न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन किया जा सकता है, ताकि न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को पारदर्शी, भाई भतीजावाद से मुक्त बनाया जा सके। नागरिकों को न्यायाधीशों की नियुक्ति का आधार, उनको किस कारण चुना गया, न्यायाधीश बनने के लिए जितने उम्मीदवारों ने आवदेन किए, उनकी तुलनात्मक योग्यताएं, कोई गोपनीय चीज नहीं होना चाहिए। साथ ही साथ जिस तरह देश के प्रशासनिक सेवा में अंतिम चयन से पहले उम्मीदवारों के नाम सार्वजनिक रूप से ज्ञात होते हैं उसी प्रकार से न्यायाधीशों की अंतिम नियुक्ति से पहले यह पता होना चाहिए कि कौन कौन भविष्य में न्यायधीश बन सकता है? जिस प्रकार देश में किसे भी क्षेत्र में किसी भी उच पद पर नियुक्ति के लिए मूलभूत मापदंडों के आधार पर अभ्यर्थी को कसा जाता है उसी प्रकार से न्यायाधीश जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण पद पर नियुक्ति से पहले भी अभ्यर्थियों की क्षमता, न्यायिक दक्षता एवं आम आदमी की समस्याओं के प्रति संवदेनशीलता जैसे मापदंडों पर जांचना अति आवश्यक है।
जन सूचना अधिकार में न्यायपालिका को भी एक सार्वजनिक अथॉरिटी माना गया है। इसके बावजूद भी हमारे देश में न्यायपालिका आज भी इस कानून के दायरे से अपने आपको दूर रखती है। इसी कारण न्यायपालिका के कार्यकलापों से संबंधित मसलन न्यायाधीशों की नियुक्ति, न्यायालयों में लंबित लाखों मुकदमों से संबंधित जानकारी आम जनता को नहीं होती है। लिहाजा यह देश एवं न्याय के हित में आवश्यक हो जाता है कि अब भारत में ब्रिटेन की तर्ज पर प्रस्तावित न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन किया जाए जो कि देश की न्याय व्यस्था में व्याप्त वर्णित कमियों को दूर कर सके। देश के न्यायालयों में न्यायाधीशों की कमी, लंबित मुकदमों के निपटारे के लिए संविधान के अनुछेद 224 ए का सहारा लेकर तात्कालिक उपाय करना और समस्या का मूल उपचार न करना दूरदर्शी एवं सराहनीय कदम नहीं हो सकता। इससे भारत की न्याय व्यवस्था में एक पारदर्शिता की शुरुआत होगी। यही वर्तमान समय की मांग और जरूरत है।(DJ)
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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