Wednesday 8 June 2016

वैश्विक दासता सूचकांक में भारत (डा. विशेष गुप्ता)

ऑस्ट्रेलिया की मानवाधिकार समूह वाक फ्री फाउंडेशन ने अभी हाल ही में नियंतण्र गुलामी सूचकांक-2016 से जुड़ी रिपोर्ट जारी की है। यह रिपोर्ट बताती है कि आधुनिक युग में भी सामंती युग की गुलामी मौजूद है। यह रिपोर्ट खुलासा करती है कि दुनियाभर में महिलाओं और बच्चों समेत चार करोड़ 58 लाख लोग आधुनिक गुलामी की गिरफ्त में हैं। दो साल पहले इनकी संख्या तीन करोड़ 58 बतायी गयी थी। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में बंधुआ मजदूरी,वेश्यावृत्ति और भीख मांगने वालों को इसमें शामिल करते हुए इनकी संख्या एक करोड़ 83 लाख 50 हजार बतायी गयी है। यह रिपोर्ट ऐसे समय पर आयी है जब भारत में घरेलू नौकरों पर हमले लगातार बढ़ रहें हैं । साथ ही देश में कमजोर व गरीब वर्ग की महिलाएं व बच्चे बधुंआ जिन्दगी जीने को मजबूर हैं । इस रिपोर्ट का खुला सच यह है कि दुनिया में चार करोड़ से अधिक दासता का जीवन जीने वाले लोगों में तक़रीबन आधे भारत में हैं । गौरतलब है नियंतण्र दासता सूचकांक में 167 देशों की गणना में पांच शीर्ष देश एशिया के हैं। इनमें उत्तर कोरिया गुलामी की व्यापकता में अव्वल है। वहॉ आबादी का 4.37 फीसदी आधुनिक गुलामी की गिरफ्त में है। चीन में 33 लाख 90 हजार, पाकिस्तान में 21 लाख तीस हजार , बांग्लादेश में 15 लाख तीस हजार और उज्वेकिस्तान में 12 लाख तीस हजार लोग लोग गुलामी के शिकार हैं। जिन देशों में गुलामी का कम ऑकलन किया गया है उनमें थाइलैण्ड, म्ंयामार, लक्जमवर्ग, नाव्रे, बेल्जियम, कनाड़ा, अमेरिका, स्वीडन व आस्ट्रिया जैसे छोटे देशों को रखा गया है। कहना न होगा कि इस स्लेवरी इंडेक्स में दास्ता को परिभाषित करने के लिए आधुनिक गुलामी में कर्जग्रस्त बंधुआ मजदूरी, जबरन विवाह, मानव तस्करी, खरीद फरोख्त के लिए अपहरण, वेश्यावृत्ति के लिए कैद जीवन, बिना वेतन मजदूरी और घरेलू नौकरी में शोषण जैसी गतिविधियों को शामिल किया गया है । इसके साथ-साथ लोगों को अच्छी नौकरी और तालीम देने का लालच देकर उनके लगातार होने वाले शोषण को भी आधुनिक गुलामी के अन्तर्गत रखा गया है ।हालांकि नियंतण्र स्तर पर इस स्लेबरी यानि दासतां में प्रयुक्त गुलामी शब्द के प्रयोग से देश में विरोध के कुछ स्वर भी मुखर हुए हैं । वह इसलिए क्योंकि गुलामी शब्द स्वतन्त्र भारत में एक विदेशी उपनिवेश का संकेत देता है जो निहायत शर्मनाक है। लगता ऐसा है कि इस रिपोर्ट में स्लेबरी शब्द का जो भाव लिया गया है वह भारत जैसे देश में बढ़ती बंधुआ मजदूरी अथवा rायूमन ट्रैफिकिंग को लेकर अधिक है । इससे जुड़ी संयुक्त राष्ट्र की हालिया ‘‘ट्रैफिकिंग इन पर्सन्स रिपोर्ट’ (टी.आई.पी.) भी बताती है कि भारत में दो करोड़ से लेकर साढ़े छह करोड़ लोग स्थानीय जमींदार के यहां कर्ज़ बंधक के तौर पर काम करते हैं । इसके अलावा ईंट भट्टों, राइस मिल्स, कृषि और जरी की फैक्ट्रियों में इनसे बंधुंआ मज़दूरी करायी जाती है । यह रिपोर्ट तो यह भी बताती है कि उड़ीसा व पूर्वोत्तर जैसे राज्यों की महिलाओं को जबरन विवाह के लिए कम लिंगानुपात वाले राज्यों में भेजा जाता है । शायद यही वजह है कि एंटीस्लेबरी इंटरनेशनल ने भी अपनी परिभाषा में साफ कहा है कि वस्तुओं की तरह इंसानों का कारोबार मजदूर से बहुत कम अथवा बिना मजदूरी के काम कराना तथा उनके काम पर हर समय निगाह रखना गुलामी की श्रेणी में आता है । अवलोकन बताते हैं कि भारत में कृषि बंधुआ मजदूरों की संख्या सबसे अधिक है। इसके अलावा ईंट के भट्टों पर काम करने वाले मजदूरों की दशा तो और भी खराब है। सच तो यह है कि इन्हें तो न्यूनतम मजदूरी भी नहीं दी जाती। दलालों को कुछ रक़म एडवांस देकर उनके जरिए सैकड़ों मजदूरों को ईंट भट्टों पर बंधुआ मजदूरी करने के लिए मजबूर किया जाता है। भारत में बाल बंधुआ मजदूरों की दशा भी कुछ कम दयनीय नहीं है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में तकरीबन डेढ़ करोड़ बच्चे बाल मजदूरी का शिकार हैं। स्वयंसेवी संगठनों के अनुसार तो यह आंकड़ा ओर भी अधिक बताया जाता है । अकेले दिल्ली की स्थिति तो यह है कि यहां कुल मजदूरों में तीन-चौथाई लोग बंधुआ जिंदगी जीने को मजबूर हैं। आंकड़े बताते हैं कि यू.पी., बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा, तथा पश्चिम बंगाल के साथ में देश के अन्य हिस्सों समेत छह करोड़ से भी अधिक मजदूर बेगारी प्रथा को ढो रहे हैं। देश में बंधुआ मजदूरी उन्मूलन अधिनियम 1976 में स्पष्ट प्रावधान है कि मजदूरों को न्यून्तम मजदूरी से कम दिया जाना, तयशुदा घण्टों से अधिक काम करवाना तथा उन्हें आवेरटाइम न दिया जाना कानूनन अपराध है । देश की इस समस्या से जुड़े कानूनों की ही कमजोरी है कि देश में बड़ी संख्या में महिलाओं व बच्चों से बंधुआ मजदूरी कराने तथा उन पर होने वाली हिंसा की खबरें रोजाना सुनने व पढ़ने को मिल रही हैं।जैसा सुनने में आ रहा है कि नियंतण्र स्तर के इस दासता सूचकांक में आंकड़े कुछ पक्षपाती हैं। परन्तु सही बात यह है कि भारत के विज्ञान और सूचना तकनीक से जुड़े आंकड़ों को निकाल दें तो मानव विकास के अन्य सूचकांक से जुड़े जो आंकड़े हमारे सामने हैं उनसे विश्व स्तर पर भारत की तस्वीर पहले के मुकाबले बेहतर तो हुई है,लेकिन अभी भी देश में मानव विकास के क्षेत्र में बहुत कुछ किया जाना बाकी है। हालिया ग्लोबल हंगर इंडेक्स के आंकड़ों ने साफ किया है कि दुनिया में हम भूख के सूचकांक में पहले से बेहतर हुए हैं। भारत में पाँच साल से कम उम्र के बच्चों के कुपोषण में भी अब इनकी संख्या घटकर 40 फीसदी से 30 फीसदी रह गयी है। परन्तु फिर भी शर्म की बात यह है कि भारत के कुपोषित लोगों में औरतें और बच्चे ही अभी भी इसके अधिक शिकार हैं । संयुक्त राष्ट्र की 2015 की मानव विकास रपट में भी भारत को दुनिया के 186 देशों में 130वें नम्बर पर रखा गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतीय अर्थव्यवस्था तेजी से प्रगति की ओर अग्रसर है। यहाँ आर्थिक विकास भी अपनी गति पकड़ रहा है। परन्तु इसके बावजूद विश्व बैंक की रिपोर्ट खुलासा करती है कि विश्व के कुल गरीब लोगों में से एक तिहाई केवल भारत में ही रहते हैं । पिछले ढाई दशक में उदारीकरण की नीतियों का यह परिणाम हुआ कि एक दशक पहले भारत की जीडीपी में खरबपतियों का जो हिस्सा दो फीसदी था वह हाल में बढ़कर 20 फीसदी तक चला गया। अति धनाढ्य लोगों की संख्या की दृष्टि से भारत विश्व में छठे नम्बर पर है। आर्थिक विकास में खेती-किसानी की हिस्सेदारी फिलहाल कोई बहुत अच्छे संकेत नहीं दे रही। शायद यही वजह है कि देश में लगातार बढ़ती यह सामाजिक-आर्थिक असमानता समाज के कमजोर वगोर्ं में अनेक प्रकार की वंचनाओं का जन्म दे रही है । इस रिपोर्ट से जुड़े आंकड़ों से कम से कम इतना तो साफ हो ही जाता है कि देश की एक बड़ी आबादी आज भी न्यूनतम मजदूरी, बुनियादी जरूरतों तथा अपने मालिकों से अच्छे वर्ताव से महरूम है । साथ ही वह असंगिठत रूप से बेहद अमानवीय हालातों में काम करने को भी मजबूर हैं । इसका मुख्य कारण गरीबी तो है ही । परन्तु दूसरी ओर देश में आर्थिक विकास का लाभ समाज के अन्तिम छोर तक न पहुंचने के कारण देश में उनके बीच बुनियादी सुविधाओं का अभाव उन्हें खुद को बंधक रखने को मजबूर कर रहा है। यह बात सच है कि देश की कल्याणकारी योजनाओं और सार्वजनिक वितरण पण्राली में व्याप्त भ्रष्टाचार पहले की तुलना में कम हुआ है। परन्तु फिर भी समाज का कमजोर व गरीब तबका अभी भी जीवन जीने की न्यूनतम सुविधाओं से वंचित हो रहा है । ऐसे में लोगों को मजबूरी में पेट पालने के लिए अत्यन्त जोखिम भरे हालतों से गुजरना पड़ता है। इसलिए इतनी बड़ी असहाय और बंधक बनी आबादी को जीवन जीने के मानवाधिकार सुनिश्चित करना किसी भी सभ्य और लोकतान्त्रिक व्यवस्था व समाज के लिए बहुत बड़ी जिम्म्ेदारी है। हालांकि मोदी सरकार ने सामाजिक क्षेत्र में बड़े बदलाव लाने के लिए काफी योजनाएं लागू कीं हैं। लेकिन फिर भी समाज के आखिरी छोर पर रहने वाले लोगों को जीवन जीने के न्यूनतम अधिकार मिलने अभी शेष हैं। इसलिए दुनिया के साथ-साथ भारत को भी ऐसी आधुनिक गुलामी पर प्रतिबंध लगाने के लिए कड़े कानून बनाने की भारी जरत है। ब्रिटेन के इससे जुड़े सख्त कानूनों की नजीर हम सबके सामने है। अंत में कड़वा सच यह है कि जब तक विकास की कतार के आखिर में खड़े व्यक्ति को जीवन जीने से जुड़ा न्यूनतम सम्मान नहीं मिल जाता तब तक लोगों का यह बंधुआ जीवन इसी प्रकार देश में दासता के सूचकांक को प्रभावित करता रहेगा । इस मुद्दे पर समय रहते गंभीर चिन्तन और मनन की आवश्यकता है। (RS)

1 comment:

  1. akhir aisa kyo ho raha hai. kya hamare desh ki sarkar wa usko chalane wale nikamme hai......................ya or kuch hai....mura manna hai ki o aisa isliye kar rahe hai kyoki o videshi hai...

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